Monday, June 20, 2016

भींगी घरती पहली बरखा!

भींगी धरती
पहली बरखा,
गीले पेड़ गीले पात
नीला अम्बर
हुआ बादली,
तपती पछुआ
हुयी सुरीली,

मस्त मेढ़कों की
टोली ने
धुन छेड़ी अलबेली ,
गाये चिड़िया
गाये तितली !
भींगी घरती

पत्तों के कोरों से
टप टप 
निथर रहा अमृतजल ,
अगहन झुलसी
पियरी माटी
पी पी पानी
                 हो रही है चन्दनी !
                 उठती सुवर्ण गन्ध
                से मदमाते
               हरे आम
                हो रहे हैं पीले,


भींगी घरती
पहली बरखा!
गढ़हे में
भर आया है
छिछला पानी ,

टेंटा-दल कर रहा
मनमानी,
चॊंच-चॊच
पंख पंख
वारिद मोती
उड़ते फर फर,
भींगी घरती
पहली बरखा!




(सभी चित्र वेब से साभार)

Sunday, March 13, 2016

नागा लोककथायें:अरमेजंग और उसके दामाद लेटरसंग की कथा

Ang Chief Women, 1954 Copyright Protected 
मां का असीम प्यार" (पिछली कहनी देखें) नामक पुरानी कहानी में हमें पता चला कि एक मृतात्मा ने लेटरसंग को किस प्रकार एक अच्छा पाठ पढ़ाया. लेटरसंग का दूसरा नाम सुंगदर था. वह अविस्मरणीय घटना यासानारो के पिता को बहुत बुरी लगी थी. उन्हें इस बात का दुख था कि लेटरसंग ने उनकी इकलौती बेटी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया. वो इस गांव के मुखिया (गांव-बूढ़ा)भी थे. उन्होंने अपनी बेटी के साथ हुये धोखे का बदला लेने के लिए सुंगदर को सबक सिखाने की सोची.

गांव के इस शासक का नाम अरमेजंग था. वह पोंगन कुल से था जबकि उसका दामाद जामिर कुल से था. उन दिनों दुनिया के अन्य लोगों की तरह आओ लोग भी नये बसेरे की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान जाया करते थे. इसी क्रम में इस गांव ने भी पुरानी जगह छोड़कर सूदुर कहीं विस्थापित होने  की सोची. आओ परम्पराओं और रीतियों के अनुसार यदि कभी किसी पुराने गांव को खाली करके नये स्थान पर गांव बसाना होता था और इस बीच कोई ताबूत अपने अन्तिम संस्कार “त्संग्जू”  (See previous story) के लिए रखा हुआ होता था तो उसे अवश्य़ ही बिना मृत्यु के संस्कार के ही कब्रिस्तान पहुंचाया जाना होता था. भले ही उसका समय पूरा न हुआ हो.

ऐसी परिस्थिति में , गांव-बूढ़ा अरमेजंग ने गांव वालों को नये गांव के लिए यात्रा शुरु करने का आदेश दिया. साथ ही इस अवसर का लाभ उठाते हुये मृत यासानारो के पिता ने अपने दामाद लेटरसंग को अपनी मृत पत्नी का ताबूत अपने कन्धे पर रख कर नये गांव ले चलने का आदेश दिया . निश्चित तौर पर यह लेटरसंग के लिए एक सजा थी. आओ नागाओं के परम्परागत इतिहास में अभी तक ऐसा कभी हुआ भी नहीं था. फिर भी, पिता अरमेजंग ने जानबूझ कर अपनी एक मात्र बेटी का ताबूत उठाकर नयी जगह ले जाने के परम्परा-विरुध्द कार्य के लिए अपने दामाद को आदेश दिया. लेटरसंग के पास आदेश का अक्षरशः पालन करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. चूंकि आदेश गांव-बूढ़ा का था.

नयी जगह जाने के लिए जब पूरा गांव अपना सामान लेकर गांव के बाहर आ रहा था, लेटरसंग को अपने सिर पर ताबूत ढ़ोना था. इस प्रकार, ताबूत लिए हुये वह अन्य लोगों के साथ यात्रा कर रहा था. नये बसेरे से थोड़ा पहले, एक गांव के पास ,सारे लोग  कुछ क्षण    विश्राम करने के लिए रुके. थोड़ी देर सुस्ताने के लिए लेटरसंग भी रुक गया. अपना सामान—ताबूत पेड़ के सहारे रख टिका दिया और वही उसी के पास बैठ गया. ताबूत के पास बैठे हुये उसने विश्रान्ति की एक गहरी सांस ली. तभी अन्जाने में ही, उसके हृदय से गहरी पीड़ा को व्यक्त करने वाले कुछ बोल फूट पड़े .......

“ वे रोज के रास्ते
जिनपर आती जाती थी यासानारो,
Chang Warrior (From Internet)  
छूट गये हैं पीछे , सुदूर.

कल कल करती,छरहरी जंगली नदी पर 
वो बांस का पुल,
जिस पर आसमान में 
सूरज व चांद की तरह
उगती और अस्त होती थी यासानारो,
अब खाली हैं.

झरनें में खिलने वाला वह फूल
जिसकी खिलती पंखुड़ियों की तरह
मैंनें अपने प्रेम को 
खिलने देने की शपथ ली,
मेरा पुराना गांव
जहां मेरा “ सुंगखू मेयोंग नारो”—सूरजमुखी –
मुरझाकर गिर चुका होगा अब......

कितना सुखद होता,
उसी सूखे फूल के साथ
वही की मिट्टी में 
मेरे इस तन मन का भी 
सूख कर मिल जाना !

“ सुंगखू मेयोंग नारो" एक सुन्दर फूल का नाम था. लेकिन आज लेटरसंग यासानारो को इस नाम से पुकार रहा था. अपने वातावरण से अनभिज्ञ लेटरसंग बैठा हुआ गा रहा था. उसका यह गीत उसके ससुर अरमेंजंग के कानों में पड़ा. गहरी पीड़ा से उमग रहे इस गीत को सुनकर अरमेंजंग को दृढ़ अनुभूति हुयी कि लेटरसंग उसकी पुत्री के प्रति पूरी तरह से क्रूर और अन्यमनस्क नहीं था. हालांकि कि लेटरसंग के व्यवहार में कुछ कमियां थी किन्तु वह अपनी पत्नी को बहुत गहरे मॆं प्रेम करता था.ऐसा महसूस कर अरमेंजंग ने लेटरसंग को तुरन्त माफ कर दिया व ताबूत वहीं छोड़ने को कहा.

   भारी मन से ताबूत वहीं छोड़, वहां से लेटरसंग अन्य गांव वालों के साथ आगे बढ़ा. वे सभी अपनी नयी बस्ती में सुरक्षित पहुंच गये. यह कहा जाता है कि अपने अभीष्ट गांव में बसने से पहले वे जरूर कुछ दिन “अलीबा” नामक गांव में ठहरे थे. वहा कुछ दिन रहने के बाद ही वे अपने गांव “किनुंगर” में रहने गये. जबकि वे सब अलीबा गांव में ही रह रहे थे, लेटरसंग का मन बहुत अशान्त रहता था. अपनी प्रेमिल पत्नी का अभाव उसे हर क्षण खल रहा था. उसका पूरा अस्तित्व अपनी प्यारी पत्नी व पुराने गांव-घर, जहां उसने अपने जीवन के कुछ अच्छे दिन बिताए, की यादों से गूंजता रहता था. बहुत बार उसे ऐसा भी लगता कि एक बार फिर उसे अपने पुराने गांव की यात्रा पर जाना चहिये. जिसे वह वीरान छोड़ आया था.

इसलिए उसने एक दिन अकेले ही पुराने गांव की यात्रा पर निकलने का दृढ़ निश्चय किया. पुराना गांव चंहु दिश ऊंची झाड़ियों हरे जंगली पौधों से भर चुका था. अपने पुराने गांव पहुंच कर वह सबसे पहले वृहत-शिरा “किफूलांग” गया. “किफूलांग” एक बड़ी चट्टान थी जिसकी गांव के लोग पूजा किया करते थे. वहां कुछ क्षण ठहर कर वह अपने पुराने बीते दिनों को याद करता रहा. लेटरसंग इस बड़ी चट्टान के आसपास कभी अपने संगी साथियों के साथ मन में जीवन-मंगल व उत्सव की भावना भर नृत्य करता था ,जंगल गीत गाया करता था. किन्तु आज वहां सब कुछ सूना और उजड़ा हुआ था. जहां कभी हार्नबिल की तीखी झंकारों पर हवा की तितलियां नृत्य करती थी, वहां आज सिर्फ झींगुरों, कीड़े मकोड़ों की कड़वी झुनझुनाहट थी. वहां से वह पुरानी अरेजू (छात्रावास जैसा) के बगल में रखे हुये लकड़ी के बड़े हौदे के पास गया. वे इसमें झरने का पानी एकत्रित किया करते थे. उसने महसूस किया कि हौदे में एक अजीब तरह का खालीपन भरा हुआ है. वह कुएं जैसा हो गया है जिसकी तलहटी में बरसात का पानी जमा है और उसमें कुछ अदृश्य पक्षी पानी पी रहे हैं. वह एक गहरे सन्नाटे में डूब गया. फिर वह पास में ही खड़ी वीरान हो चुकी अरेजू में गया. अरेजू का आच्छादन उखड़ गया था. और हर तरफ बड़ी बड़ी झाड़ियां उग आयी थी.

गहरे दुख में डूबा हुआ लेटरसंग धीरे धीरे गांव के कुएं की तरफ बढ़ा. कुएं का नाम था “लोंग्त्सुबा’. कुएं पर भी उसी तरह खरपतवार झाड़ियां उग आयी थीं. ऐसा लग रहा था मानो वह कभी मानवों द्वारा प्रयोग ही न किया गया हो. आसपास फैले वीरान गांव के मनहूंस दृश्यों ने जैसे उसकी शिराओं को जमा दिया. उसका हृदय डूबने लगा. पुराने जीवन की यादों के बुलबुले उसकी आंखों के सम्मुख तैरने लगे. अपनी प्यारी पत्नी व संगी साथियों के साथ बिताये उल्लास विलास के दिन उसके सम्मुख खड़े से हो गये. अचानक उसका हृदय कहने लगा......

“किफूलांग—मेरी पूजनीय़ चट्टान
बची रह गयी है टूटी फूटी
विचित्र आवाजें करने वाले पतगों के अधिकार में.

मैं देखता हूं
अपने लकड़ी के हौदे का खालीपन
पानी से भरते हुये,
जो चिड़ियों के लिए एक खाली कुआं है.

मेरे हाथों निर्मित अरेजू,
मोरुंग का वो भव्य मुख्य द्वार
सुगठित हरे बांसों के तोरण से सज्जित,
वो लोंग्त्सुबा कुआं –
सब मैंने अपने इन्हीं हाथों से उकेरा—
जहां मेरे साथी मिलते थे
जहां हमारे हृदय में होता था
नव उर्जा का संचार.
वे सभी पथ
जिन पर हैं यासानारों के पदचिह्न,
अब वीरान हैं.
वे सभी पुल
जिनपर यासानारों ने तय की यात्राएं,
रिक्त हैं.


मेरे प्रिय गांव रेथू....
तुम्हारा  फिर से जीवित होना
मेरे लिए एक सपना हैं.”


अन्ततः उस बोझिल वीरान माहौल में उत्कण्ठित हृदय लिए लेटरसंग ने वापस लौटने की सोची. वह सीधे अपने नये गांव आया. अपने परिजनॊं, गांववासियों से मिला. वापस आकर उसने अपने यात्रा की कहानी अन्य लोगॊं को सुनायी. उसने परित्यक्त गांव रेथू का मार्मिक वर्णन किया. लौटने के छठवें दिन ही लेटरसंग ने अपनी अन्तिम सांस ली. संभवतः वह अन्दर से एकदम टूट गया था. अपने पीछे वह अपना एकमात्र बेटा व बूढे ससुर को छॊड़ गया.

माना जाता है कि उसकी आत्मा “डुपुली" (स्वर्ग/मृत्युलोक) चली गयी होगी. वहां वह अपनी यासानारो से मिलेगा और प्रेम व प्रसन्नतापूर्वक सदा सदा उसके साथ रहेगा. क्योंकि ऐसा माना जाता है कि दिपुली में बिछोह नहीं होता. वहां पुराने प्रेमी मिलते हैं. अनन्त प्रेम में सदा सहचर बने रहने के लिए.