Friday, October 31, 2014

मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ।

अवनि के आभामण्डल से
हजारों प्रकाश वर्ष दूर
गहन अन्तरिक्ष में
जो नीला अंधेरा है वही तुम्हारा रंग है ।
विस्तृत अज्ञात
नामहीन शब्दरहित
अनेकानेक आकाशगंगाओं में
पसरा जो निर्वाती सन्नाटा है वही तुम्हारी भाषा है।
मेरे मैं का वह सीमाहीन हिस्सा जिसे न समझ पाता हूं न जान
को ही लेकर तुमने बिखेर दिया है
हर अन्त के उस पार
देकर हर रूप, गति, नाम, परिधि के
मर्दन का प्रभार।
यह अन्तहीन परा विमीय विस्तार ही
तुम्हारा प्रेम है।

मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ।

Monday, October 27, 2014

नेह मधु

तुम्हारी स्मृतियां भी
पहाड़ी मधु-तितली के छत्ते जैसी हैं
जिसे वे छोड़ गई हों,
मन के
शान्त एकाकी वन- गह्वरों में ,
इन छत्तों को
अब भी जब भी
छू लेती है मेरी कोई गहरी सांस
सब मधु मधु हो जाता है!
मधु मधु !!!
विशुद्ध सान्द्र  नेह मधु !!!

Sunday, October 26, 2014

ठहराव

पाकर तुम्हें
फिर से
यूँ लगा कि
दुनिया खत्म हो गई।

Tuesday, October 14, 2014

विचारधाराएँ

कर देती हैं पंगु
संवेदनाओं को
मेरे भीतर के आदमी को
मेरे कवि को ,
विचारधाराएँ
गठिया  रोग हैं।

 

Sunday, October 12, 2014

नींव

मकान की ही नहीं
रिश्तों की भी
होती है नींव

रिश्ते
कभी उनसे
आजाद नहीं हो पाते

Saturday, October 11, 2014

पहला दिन

आज
धूप थोड़ी नर्म थी
सहमी हुई सी
पुरानी यादों में खोयी हुई सी


आज
जाड़े का

पहला दिन था

Friday, October 3, 2014

अकेले ही

चलूँगा मैं
अकेले ही
सूर्य की ओर।

अन्त

बुरा नहीं है
इतना भी
दफ्न हो जाना
साथ
अधूरे सपनों के ।