Saturday, April 7, 2012

फिर से प्यार ...


(यह समयान्तर में छ्प चुकी एक पुरानी कविता है)


चलो छॊड़ो जाने दो
अब वह बड़ा वाला प्रेम ,
वो सच्चा और गहरा वाला प्रेम ,
वो निर्मल वर्मा और अज्ञेय वाला प्रेम ,
वो इमली ब्रान्टॆ और लारेन्स वाला प्रेम ,
चलो छोड़ो , रहने भी दो
वह तो हो चुका अब हमसे ।

आओ चलो !
शाम को टहलते हुये
क़ाफी पीने चलते हैं ।
नेस्कफे में किनारे वाली बेन्च पर
आमने सामने बैठते हैं
लंका के अरोमा प्रोविजन से
आते वक्त खरीदी गयी
वनीला पेस्ट्री व चाकलॆट पास्ता के बाद
दो गरम गरम झाग भरी कापचीनो मंगाते हैं ।
आसपास बैठे
चूं चूं करते, परस्पर निमग्न
एकदम जोरदार व जबरदस्त प्रेम करनेवालों से
बिलकुल अलग
बहुत देर तक बिना किसी भाव के
अनुद्विग्न , शून्य
हम
एक दूसरे से
हल्की हल्की ढेर सारी बातें बतियाते हैं ।
बातें, साबुन के बड़े बड़े फुग्गों सी बातें
जो अपने आप में
एकदम पूरी होती हैं ,
कुछ देर तक मन के व्योम में
हौले हौले तैरती रहती हैं
और फिर पीछे अपने
सिवास हल्की सी नमी के
और कुछ नहीं छोड़ती  ! ! !

तो इस तरह बतियातें हैं ।

बतियानें में यदा कदा
एक दूसरे को देख भी लेते हैं
जैसे अनवरत वर्षों से
एक दूसरे को ही देख रहे हॊं
या जैसे
एक पेड़ दूसरे पेड़ को देखा करता है ----
चुपचाप ---बिना किसी भाव के
बस एक अनभिव्यक्त अन्तःप्रेरणा से ।


आओ चलो ! ज्यादा न सोचो !
न तुम अमृता प्रीतम हो सकती हो
और न मैं इमरोज़ .
सिर्फ किताबें पढ़ने से कुछ नहीं होता ।
देखॊ ! सद्य प्रसूता स्त्री सी जीर्ण ,
सिक्त व तुष्ट उदासी लिये इस पीली सांझ की
अलसायी हवा में
शान्त , गाढ़े हरे , कतारबद्ध खड़े
इन विशाल रहस्यमयी पेड़ों के लिये
शिशिर का सन्देश है ।
अगर मैं कवि होता
तो इस पर एक अच्छी कविता लिखता,
तुम्हें
इन रम्य वृन्तों पर खिले
प्रगल्भ रक्तिम पुष्प
और स्वयं को
तुम्हारे आसपास की
स्नेहिल हवा लिखता  ! !
लेकिन छोड़ो ! !
न मैं लारेन्स का पाल मारल हूं
न तुम मिरियम ।
चलो , अन्धेरा काफी हो गया है
अब नेस्कफे बन्द होगा ।

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर आर्जव -यही है सहज प्रेमानुभूति का प्रगटन _
    वाराणसेय नोस्टाल्जिया अभी सर पर सवार है बढियां लगा !

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    1. main is kavita ki sarlta aur sahaj anubhooti sarabor ho gayi.jab se dharmyug aur saptahik hindustan jaisi patrikayen aur hidi ki pustake prakashit honi band ho gayi,main aisa kuch padhne ko taras gayi.padhne ki adat ki bhookh puri krne ke liye angrezi sahitya ka sahara liya.achha lgta hai,bahut padha pr hindi ke liye hriday rota taha.mujhe hindi me type krna nahi ata.roamn lipi me apni bhasha likhte isko apmanit krna lagta hai.kathin bhi hai.pr main apni diary me hindi me hamesha likhti rehti hun.jab bhi apni bhasha me kuch achha mile padh leti hu.dushyat kumar aur muktibodh mujhe priya hain.urdu me anuvadit bashir badr aur galib bhi padhti hun.aj ks ye anubhav apratim tha.dhanyavad.

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  2. Achhi Kavita...Padh kar kai vichar utpann hote hain..aaj ke pyar ko paribhashit kiya jaye to kaise?..par ye kavita kafi had tak is prashn ka uttar deti hai..

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  3. बहुत दिनों बाद कविता पोस्ट की.
    बहुत ही सुन्दर कवित .... उतना ही जितना कि पीली सांझ की अलसायी हवा में शान्त , गाढ़े हरे , कतारबद्ध खड़े विशाल रहस्यमयी पेड़ होते हैं.

    ढेरों शुभकामनाएँ !

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  4. कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति .......

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