Friday, February 4, 2011

अनुपस्थिति (२)


कमरा सब तरफ से बन्द था
फिर भी न  जाने  कहां  से
ठण्डी   हवा    आती   रही !

नब्ज रोककर पूरा    बदन सिकोड़े हुये
हर कतरा हवा का दूर फेंक आया था मैं
फिर भी सांस जाने कैसे आती जाती रही !

मेरी जिन्दगी की हर कहानी से अपने नाम के
हर   शख्स   को मिटाकर  चले गये हो तुम
दूर बहुत    एक   लम्बा  दरम्यां  बनाकर
दिल जानता है ये दिमाग को इकरार है इसका
फिर भी न जाने किस उम्मीद का  बहरूपिया
दिल के   इस   भोले दर्द    को  रोज सांझ
बेवजह ……………यूं ही …………….छेड़ …….जाता है !

8 comments:

  1. हाँ ये वाली ठीक है ...कविता में आस्था होनी ही चाहिए यार (और कहीं तो देखने को मिलती नहीं अब )....इस कविता में सबसे कमाल का शब्द ' बेवजह ' है..

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  2. @(और कहीं तो देखने को मिलती नहीं अब ...........नहीं भाई ! देखिये तो आप ....बहुत आस्थावान हैं अभी ....

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  3. Gr8, I was waiting for such a post. Nice.... the second stanza touched me. Keep it up dear.

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  4. बेवज़ह कुछ नहीं होता , मित्र.
    दर्द चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उससे बहुत बड़ी होती है उम्मीद. इसीलिए तो बहुरूपिया है वह , दर्द की तरह एकरूपीय नहीं.

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  5. dekhiyega bhaiya aise halat meye sard hawayen
    bahut hi zyada tadpati hain.
    GOODLUCK.

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  6. बहुत सुंदर रचना .. बाधाई
    आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ आकर बहुत अच्छा लगा .
    कभी समय मिले तो http://shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी आप अपने एक नज़र डालें . धन्यवाद् .

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  7. शुभकामनायें आर्जव !

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  8. हर सुबह तेरी याद आती है ..हर सांझ तेरी याद आती है ..हर बात से तेरी याद आती है ..हर याद से तेरी याद आती है
    तीसरी पंक्ति में "ठंडी हवा" का अंतिम पैरा से तालमेल ? लेकिन किसी दिन आर्जव की कविता पढ़ने के लिए दीवानगी को खुद जमीन पर लम्बी लाइनों में इन्तजार करना होगा

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