Tuesday, September 6, 2011

अन्ना को समय ने रचा है ।


अन्ना को समय ने रचा है
वह बहरा नहीं है

संस्कृतियों के मेले से छांटकर
समय 
अपनी उत्तुंग प्राचीर पर 
टांकता है
अव्यय मूल्यों के 
कुछ क्षीण भित्ति-चित्र !

समुदाय के सामूहिक बौद्धिक नैतिक
ह्रास के प्रतिपक्ष में
अन्वेषित की जाती है
विनय अहिंसा मण्डित
पुनर्नवा आस्था !

अन्ना को समय ने रचा है
वह बहरा नहीं है

तृषा व्योमोह में
स्वत्व के सत्व -स्खलन से
रचे जा रहे
विकृत भ्रटाचार के  
व्यभिचारी विश्वकोश खण्डन में
सतत लिपि बध्द की जाती है
आत्म प्रतिबध्द,
विनिर्माण हेतु शतधा आबद्ध,
विशद प्रासंगिक नैतिक मूल्यों की
निस्पृह संहिताएं !

अन्ना को समय ने रचा है
वह बहरा नहीं है

Saturday, July 30, 2011

विस्मृत....... सदा के लिये !


दर्द ठीक हो गया
तो बची रह गयी
अगली खुराक ,
मेज पर पड़ी है
धूल फांकती,
किसी दिन फेंक दी जायेगी
एक अर्थहीन निर्मम
सहानुभूति के साथ ।

कुछ ऐसे ही
पुरानी कापियों के पिछले पन्नों में
आधी ढरक कर
बिना पूरा हुये ही
चुप हो , ठहर कर
सूख गयी है
कई
तरह तरह की
विचित्र और अद्भुत
कविताएं  !
किसी दिन
अपनी अपूर्णता के सन्दर्भ  में
परिभाषित होकर
कर दी जायेगी
विस्मृत
सदा के लिये !

Friday, May 13, 2011

फिर कभी !


खुद ही सब कुछ छोड़ आये हैं
फिर भी एक कतरा बेजुबान सी
उम्मीद है कहीं कि 
वहां से आवाज आयेगी
फिर कोई !

सबको पहचानते थे बखूबी
रंग रंग से वाकिफ थे उनके
फिर भी सबके सामने कर दिया इन्कार
किसी एक को भी पहचानने से
(वहएकहीकईहोकर आया था !)
तब भी एक बात बेबात सी है मन में
कि वे आयेंगे बुलाने हमको
फिर कभी !

दर्द को मांगने
लब्ज आया तो था
हमने गुरूर में कह दिया, जाओ !
तुम्हारे बस की बात नहीं ,
मिलेगें,
फिर कभी !


Tuesday, March 22, 2011

समय बच गया था


समय बच गया था,
अनवरत गुजरते हुये
हर द्वार पर से
बिना प्रतीक्षा किये
किसी की भी
कुछ की भी !

अहर्निश गतिशील रहते हुये भी
समय बच गया था
धुले गये बरतन किनारे
छुपी रह गयी चिकनायी की तरह ,
टॆबल ग्लास पर
पोछे जाने के बाद भी
चुपचाप बिछी रह गयी
एक पतली परत धूल की तरह
समय बच गया था ,
अनबीता !

स्मृतियों में फंसे....
न जिये जा सके
टुकड़े टुकड़े जीवन को
फिर से दिये जाने के लिये ,
काल चक्र की इस किताब के
कुछ पात्रों, 
कुछ संवादों को
फिर से,
ठहर कर ,
ठीक से 
सुने जाने के लिये,
दुहराये जाने को
दिये जाने के लिये
समय बच गया था !

दोपहर के घने नीरव सन्नाटे में
अलमारी में लाइन से सजी
अनेक किताबों की चुप्पी को
समझते हुये मैंने पाया कि
समय बच गया था ,
उन किताबों के पीछे
उजागर होते ही
कहीं और टिकुरने के लिये सरकती, 
कोने में सटकी 
छिपकली की तरह
समय बच गया था
मन में ,
स्मृति में ,
किसी किताब में
किसी पात्र के जरिये
फिर से गुजरने को !

Friday, February 4, 2011

अनुपस्थिति (२)


कमरा सब तरफ से बन्द था
फिर भी न  जाने  कहां  से
ठण्डी   हवा    आती   रही !

नब्ज रोककर पूरा    बदन सिकोड़े हुये
हर कतरा हवा का दूर फेंक आया था मैं
फिर भी सांस जाने कैसे आती जाती रही !

मेरी जिन्दगी की हर कहानी से अपने नाम के
हर   शख्स   को मिटाकर  चले गये हो तुम
दूर बहुत    एक   लम्बा  दरम्यां  बनाकर
दिल जानता है ये दिमाग को इकरार है इसका
फिर भी न जाने किस उम्मीद का  बहरूपिया
दिल के   इस   भोले दर्द    को  रोज सांझ
बेवजह ……………यूं ही …………….छेड़ …….जाता है !

Thursday, January 27, 2011

अनुपस्थिति


ढलते……उदास….दिन !
खाली साझें……सन्नाटा !

तेज चलती….रूखी…हवाएं !
बन्द गलियारों में बिखरे
सूखॆ ,खड़खड़ाते पीले पत्ते !

कहीं ये तुम्हारी याद के
कुछ और नाम तो नहीं ?
! !
! !
! !
दिनभर सो कर उठा हूं मैं
चलूं कुछ काम करूं ………..!

जिन्दगी ऐसे तो नहीं चलती ! 

Wednesday, January 12, 2011

दुनिया चलती रहती है !

यह दुनिया चलती रहती है !
चलती रहती है
और चलती रहती है !

क्योंकि इस दुनियां में
बहुत से अच्छे साफ दिल लोगों ने
बड़े मन से खूब चभककर
जिससे अच्छावाला प्यार किया
उसे ब्याह सके !

तरह तरह की बातें सोच
चुप रहे
फिर चुप ही रह गये
कुछ कह सके  !
फिर ?
फिर क्या? ???

लुट गये
पिट गये
कुच गये
दिल दिमाग सब
पिचुक गये
सिद्धान्त सब झर गये
बदल गयी बोली
फिर ?
फिर क्या???

ढल गये दुनियादारी में
मानने लगे पप्पा का हर कहा
चुपचाप कर ली नौकरी
उहां वाले मौसा के मामी
के फलनवां दमाद की
सुघ्घर सी बिटिया के
जीवन में कर गये अजोर !
फिर ?
फिर क्या???

कविता खतम ! ! !
रहा है याद कुछ पुराना ???
छोड़िये हटाईये ……….
जाइये मूं धोकर आईये !
यह दुनिया चलती रहती है !
चलती रहती है और चलती रहती है...........