Saturday, June 12, 2010

फिर उथले किनारों से ही लौट आये हैं !


सोचा था

चलेगें सिन्धु की थाह लेने

नीली अतल गहराइयों की

स्वयं पर एक छाप लेने ।



था स्वप्न चलेंगे एक बार

निरखने विशद अनुभूतियॊं के

गहन कानन लता कुंज गह्वर ,

चुनेगें कुछ पुष्प

चेतना की सजावट को

संघनित आर्द्र भाव अवगुंठनों के।



अजाने मन की

हुलसती एक चाहना थी

उड़ेगें हम भी संवेदना के प्रसार में ,

बतियायेगें

व्योम के निस्तब्ध वितान से

गहन मौन की बातें ।



वृन्त पर जो पुष्प है चुप समर्पित

उससे भी मिलेगें जानने को उसका समर्पण

अपने निविड़ एकान्त में वह किस तरह

देता है स्वयं को , अवसन्न , अशेष

अम्बर की निस्सीम विशालता को ?



सांझ की नीलम पट्टिका ओढ़

सुदूर बहुत सलिल तीरे ,स्तब्ध

सो रही है जो हरे गाछों की घनी बस्ती

जिन पर चांद से चुरायी चन्द्रिका को

बना अच्छत छींटते हैं प्रकाश कीट

विशाल वृक्ष जिनमें , अर्द्ध-मुखरित , स्तिमित

कर रहें हैं श्रेयस सांध्य गीत मौन वाचन

मौन ही की धुन पर , लयमयी , सुरमयी

सोचा था

सुनेगें

गुनेगें उन्हें भी ।



किन्तु

नियति तो यह थी नहीं ।


फिर लौट आये हैं

चेतना के हंस कछारों से ही ।

गहनता

फिर एक स्वप्न बन कर रह गयी है ।

गये थे थाह लेने अतल गहराइयों की

लेकिन

ठगा है खुद ही ने खुद को,

फिर उथले किनारों से ही लौट आये हैं !

कविता के विरोध में

भाव पंचर हो गये हैं !



मन न जाने क्यों

अपना मसौदा

कविता को देना नहीं चाहता

है बहुत कुछ पास उसके

कहने को , सुनाने को

कविता को देने को

कविता हो जाने को

लेकिन वह दबाये बैठा है

सटकाये बैठा है ! ! !


वह नाराज है शायद कविता से

कि वह बड़ी डिप्लोमेट हो गयी है !

मन के मसौदों को नीलाम कर रही है !

सभी विधायक दबावों को

फिस्स कर दे रही है

सभी सृजनात्मक बलॊं को बिखेर दे रही है !