Wednesday, February 24, 2010

केसरिया मन


सोचता हूं सो जाऊं !
खो जाऊं !
बोझिल तन !
स्नेहिल मन !
निढाल सब छोड़ू !
मिट जाऊं !
लेकिन फिर ……….
सांझ थोड़ी देर तक की
तुम्हारी संगति याद आती है -------


तुम्हारे सानिध्य का केसर
अभी तक
मन की देह पर बिखरा हुआ है !


तुम्हारे सरल मधुर हास का चन्दन
अभी भी झींना झींना
आती जाती सांसों में गमक रहा है !


याद आता है तो कस्तूरी बन गया लगता है
विदा के अन्तिम क्षणों में
तुम्हारे उन पंकिल पलकॊं का
करुणामय आरोहण अवरोहण ! ! !

सदा रहेगा
चाह में तेरी
यह केसरिया मन ! !

4 comments:

  1. बहुत बढ़िया...भावपूर्ण!

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  2. जैसे रात भिगोये गये चने से
    धीरे धीरे निकलता है
    चने में मौजूद पूरे प्रोटीन से बना
    एक टुइंया-सा अंकुर !

    और भर देता है
    भीतर
    तमाम बनस्पतिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के बाद
    ढेर सारा विटामिन
    जो प्यार के न रहने पे भी रह जाता है

    है ना अभिषेक !!

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  3. धीरे धीरे मन में उतरती .... गहरे एहसास लिए सुंदर रचना ......

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  4. इस टेम्पलेट में तुम्हारी यह कविता मुझे और भी सुन्दर क्यों लग रही है !
    न जाने !

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