ठंडी
सफेद
शुष्क !
सोचा था
चलेगें सिन्धु की थाह लेने
नीली अतल गहराइयों की
स्वयं पर एक छाप लेने ।
था स्वप्न चलेंगे एक बार
निरखने विशद अनुभूतियॊं के
गहन कानन लता कुंज गह्वर ,
चुनेगें कुछ पुष्प
चेतना की सजावट को
संघनित आर्द्र भाव अवगुंठनों के।
अजाने मन की
हुलसती एक चाहना थी
उड़ेगें हम भी संवेदना के प्रसार में ,
बतियायेगें
व्योम के निस्तब्ध वितान से
गहन मौन की बातें ।
वृन्त पर जो पुष्प है चुप समर्पित
उससे भी मिलेगें जानने को उसका समर्पण
अपने निविड़ एकान्त में वह किस तरह
देता है स्वयं को , अवसन्न , अशेष
अम्बर की निस्सीम विशालता को ?
सांझ की नीलम पट्टिका ओढ़
सुदूर बहुत सलिल तीरे ,स्तब्ध
सो रही है जो हरे गाछों की घनी बस्ती
जिन पर चांद से चुरायी चन्द्रिका को
बना अच्छत छींटते हैं प्रकाश कीट
विशाल वृक्ष जिनमें , अर्द्ध-मुखरित , स्तिमित
कर रहें हैं श्रेयस सांध्य गीत मौन वाचन
मौन ही की धुन पर , लयमयी , सुरमयी
सोचा था
सुनेगें
गुनेगें उन्हें भी ।
किन्तु
नियति तो यह थी नहीं ।
फिर लौट आये हैं
चेतना के हंस कछारों से ही ।
गहनता
फिर एक स्वप्न बन कर रह गयी है ।
गये थे थाह लेने अतल गहराइयों की
लेकिन
ठगा है खुद ही ने खुद को,
फिर उथले किनारों से ही लौट आये हैं !
भाव पंचर हो गये हैं !
मन न जाने क्यों
अपना मसौदा
कविता को देना नहीं चाहता
है बहुत कुछ पास उसके
कहने को , सुनाने को
कविता को देने को
कविता हो जाने को
लेकिन वह दबाये बैठा है
सटकाये बैठा है ! ! !
वह नाराज है शायद कविता से
कि वह बड़ी डिप्लोमेट हो गयी है !
मन के मसौदों को नीलाम कर रही है !
सभी विधायक दबावों को
फिस्स कर दे रही है
सभी सृजनात्मक बलॊं को बिखेर दे रही है !
चलती हवा में
झूमते पेड़ की खुशी का गीत
मुझॆ पढ़ने नहीं आता !
तुम्हारे शब्द भी कहां पढ़ पाता हूं ! ! !
बसन्ती बयार में
मचलती चिड़िया की चहकन
मुझे लिखने नहीं आती !
तुम्हारी हंसी भी कहां लिख पाता हूं ! ! !
पहली फुहार में
तर बतर भीजतें पलाश की बूंद बूंद खुशी
मुझे समझ नहीं आती !
तुम्हारी निःशब्द मुस्कुराहटे
ठिठुरती रात के बाद
जवान हुयी ताजा धूप का अल्हड़पन
मुझे पीने नहीं आता !
तुम्हें आंख भर देख कुछ बोल कहां पाता हूं ! ! !
बिना जिल्द की
वह फटी पुरानी कापी,
अपनी सब किताब की
ढेरी से मैं अलग रखा करता हूं
जिस पर बीच बीच में थककर
मैं कुछ नया लिखा करता हूं ।
वैसे तो पढ़ने की इस मेज पर
हैं बहुत कापियां
जिस पर मैं धरती और नक्षत्र
लिखा करता हूं
लेकिन दबी किनारे सबसे नीचे
बीते वर्ष की बची पन्नों वाली पर,
भीतर बढ़ती हरी दूब की
कचनारी कोंपले लिखा करता हूं ।
बिना जिल्द की
वह फटी पुरानी कापी,
अपनी सब किताब की
ढेरी से मैं अलग रखा करता हूं !
तुम्हारे शब्दों में
कुछ फूल हॊते हैं !
उन्हें छूकर
मैं जाग जाता हूं !
जगाओगे नहीं मुझे ?
निष्ठुर !
तुम्हारी चहकन में
कुछ रंग होते हैं !
उनके परस से मैं
बहक जाता हूं !
बहकाओगे नहीं मुझॆ ?
पाथर !
इन रंग और शब्दों से
मेरी सांस बनती है !
आंखॊं में चमक पिघलती है
और
बातॊं में खनक फटकती है ! !
लेकिन तुम .......
चुप हो अब भी ?
कुछ तो कहो
निर्मोही !