Sunday, March 8, 2009

उल्लास


हर्ष के रंग
रंग गये सब
मन के गात!

छलका उल्‍लास!
बरसा उल्‍लास !

निश्चल वृक्षों संग
नेह प्‍लावित हृदय भी
हरितिमा की इस
उत्सव-वर्षा में
तर बतर भींग उठा!

Tuesday, March 3, 2009

मृत्यु

देह तो बाद में मरती है ।
अक्सर
मन बहुत पहले ही मर जाता है ।

धीरे धीरे सड़ती लाश
बची रहती है ।
लोग कहते हैं “पहुंचा हुआ” ।


दरसल ,
बहुत सारे विचार, वाद और सोच के ढ़ंग
जगह जगह खुली कब्र की तरह बिछे रहते हैं ।
स्वछंद विचरते अनेक सुन्दर मन
बकरी के मेमनों की तरह उनमें गिरते हैं ।
वापस निकल नहीं पाते हैं ।
दफ्‍न हो जाते हैं ।
मर जाते हैं ।
सड़ जाते हैं ।

दूर दूर तक दुर्गन्ध फैलती है ।
लोग कहते हैं यश है ।