Thursday, January 29, 2009

प्रक्रिया

कभी कभी ऎसा होता है कि
पहले अनुभूति आती है- अस्पष्ट और अहेतुक!

फिर, बाद में, धुएं की सीढ़ी से नीचे उतरते हुये,
वह भाषा की बगिया में
शब्दों के फूलों पर
रंग व सौरभ सी बट जाती है !

लेकिन ऎसा होते समय बहुत बार
कोष यकायक ही समाप्त हो जाता है ,
बहुत से फूल रंगहीन और मृत ही पड़े रह जाते है !
और कविता बीच में ही अटक जाती है !

इसके विपरीत
अक्सर ऎसा होता है कि
सरसो के दाने सी एक छोटी सी महसूसन
शब्दों को समर्पित करता हूं!

मैं और उल्लसित शब्द मिलकर
बडे़ करीने से उसे गढ़ते है ,
भाषा के सोपान चढ़ते हैं !


महसूसन का वह भ्रूण
विकस कर पुष्प सा खिल जाता है ,
और अन्ततः
एक अच्छी कविता बन जाती है!

Tuesday, January 27, 2009

अब विदा दो !


पाथेय जुट गया है!!
ओ प्रिय!
अब विदा दो . . . . . .

पुष्प स्नेह का
जितना खिलना था, खिल गया है
अब, इसे चढ़ा दो.

गीत अब भी गीत है
फूल अब भी फूल है, विकम्पित स्वर मैं ही बस झर गया हूं.
अब, इसे इक फूंक में उड़ जाने दो.

बहुत सा पाना , बहुत सा खोना
बहुत से जन्म , बहुत से मरण
बस, अब तो रहने दो.

ओ प्रिय!
पाथेय जुट गया है
अब विदा दो. . . .

Wednesday, January 21, 2009

धरती और धूप

बदल रहे हैं धीरे धीरे धरती और धूप के रिश्ते! शायद इसी बदलने को मौसम का बदलना कहते है !
आज की धूप में वो कुछ दिनों पहले वाला संकोच नहीं दिखा!


नये नये रिश्ते में वो नजर बचाकर एक दूसरे को निरखना, और फिर अनायास ही एक बार कहीं छू जाने पर, बार बार छू लेने की वह कोमल नेह निमीलित ओस सी आस!

पास पास बैठे होने पर आदर भरे संकोच के स्मंभों पर टिका, लाज की नीली किरन की डोर से बुना एक दूसरे के बीच हौले हौले डोलता मध्दम शब्‍दों (कुहासे) का पुल!
सब आज कहीं पीछे छूटे- से लगते रहे !

और रिश्ते में अपनी निश्चितता के एक झूठे आभास से, भ्रम से, धूप का खुद में विश्वास कुछ ज्यादा दिखा! आम के एक प्रौढ़-से पेड़ की डाल पर बिलकुल आराम से बैठा हुआ, सामने के बड़े-से पीपल-मुहल्ले में,डाल की गलियों में आती जाती और पत्तियों की दुकानों पर खरीदारी करती हवा की लड़कियों को टूकुर-टूकुर ताकता, चाह की शक्कर घुली स्मृतियों की गरमागरम चाय पीता धूप का टुकड़ा, बहुत देर तक कुछ ध्दृष्ट सा लगता रहा!


शायद उस बेवकूफ को लग रहा है कि अब वह कहीं से भी, और कितना भी, छू सकता है धरती को...... . . . . . !

Monday, January 19, 2009

आदत



नश्‍वर है देह ,
मन और
हर वह कन जो जन्मा है ।

समय के पाश में जकड़ी , भंगुर है वो आभा
जो सुबह आज अकिंनच पुष्प में
विहस उठी है ।

विस्तृत सीमाहीन आकाश में तैरते हुये
एक छोटा सा कोना भी नहीं नाप पायेगा
वह लघु संगीत
जो आज सुबह उष‍स्‌ के स्वागतेय
चिड़िया के कण्ठ से पिघल कर बह चला है !

और
अन्ततः
लौट ही जायेगा वह निरपेक्ष प्रकाश
जो अनायास निर्मित लघु वातायनों से
अन्धेरे की प्यास लिये
चुपचाप सा अन्दर चला आया है !

और
एक दिन
वरण करेगी
मृत्यु
हर कण का, हर क्षण का ।


किन्तु फिर भी , हां , फिर भी
शेष रहेगा
बहुत कुछ ।

बहुत कुछ
ऎसा
जो शाश्वत न होते हुये भी नश्वर नहीं है ।
और जो बहुत मिटाया जाकर भी
फिर उतना ही सदैव शेष है ।



बहुत कुछ
ऎसा
जैसे
उस फूल के खिलने की आदत
और
उस चिड़िया के गाने की आदत !

Friday, January 16, 2009

न जाने क्या .....!


आज पूरे दिन, सूरज न जाने किस आग में तपता हुआ , आसमान के लम्बे चौड़े गलियारे में टहलता रहा है ! किरनों की नाव में बैठकर , हवा के समंदर में तली तक ,धरती तक , धूप फूल-फूल घूम ,न जाने किसका पता पूछती रही है ! हवा की चिड़िया ,पूरे दिन , अनवरत ,आत्मविस्मृत ,बिना थके , घर(पेड़) -घर(पेड़) जाकर उन्हें पूरा छान आयी है ,जर्रा जर्रा खोज आयी है ,फिर , अन्ततः ,न जाने क्या न पाकर , सांझ की गोद में गाय के सफेद प्यारे बछड़े सी निरीह , निश्चेष्ट पड़ी हुयी न जाने किस स्वप्न में डूबी हुयी सी है ! वो पुराना ,मन्दिर के पीछे वाला , अकेला चुपचाप खड़ा पेड़ , जो बार बार और हर बार शिशिर के एक साधारण से गुलाबी दिन में मध्याह्न की पियरायी उतरती धूप में थोड़ी लालिमा घोलता , अपनी सारी हरियरी न जानें किस रूठन में झार,फूलों से गज- गज लद बिलकुल टहकार लाल हो उठता है ,इस बार फिर , न जाने किसे चढ़ाये जाने की आस में लकदक लाल हो उठा है . .. . . . और ... और ....वीटी -चौराहे पर रोज बैठ, अपने अस्तित्व की समग्र दयनीयता व विवशता अपने रिघुर रिघुर कर निकलते शब्दों में भर ,कुछ दे देने की गुहार लगाती वो अपाहिज अनाथ बुढ़िया , आज पर्याप्त भीख पाकर भी न जाने क्या सोचती , उधर सड़क किनारे के पेड़ ताकती , उदास है ......

Sunday, January 11, 2009

हर रोज

हर रोज
सूरज ही नहीं ,
मैं भी
उगता
और डूबता हूँ .

हर रोज
चाँद ही नहीं ,
मैं भी
पिघलता
और बिखरता हूँ .

हर रोज
साँझ की नीली परी ही नहीं ,
मैं भी
धीरे धीरे उतरता ,
उदास होता हूँ.


हर रोज
धुधलके में जुगनू ही नहीं,
मैं भी
जलता
और बुझता हूँ


हर रोज
रात में वो पेंड़ ही नही
मैं भी
अंधेरे की धुन पर दर्द सा
बजता हूँ ।


हर रोज
घने कुहरे में सुनसान सड़क की वो पीली बत्ती ही नहीं
मैं भी
(तुम्हारी) स्मृतियों की भींगी सफेद पीली उजास में
स्तब्ध हो उठता हूँ।


हर रोज !





Monday, January 5, 2009

स्थगित अस्तित्व: एक याचना

तुम आओ!

पास बैठो मेरे !

मुस्कुराओ,
और सपने देखो !

शिशिर की इस
स्नेह -उष्ण नयी पीली धूप में
सर्जना की अविरल साधना निमग्न
किसी अनाम पुष्प वृन्त पर
मधुरिम कल्पना के स्नेह- सुमन सा खिल जाओ !

पवित्रतम क्‍वारी निशा- किशोरी के
श्याम नील मौन-आंचल में आवृत
संघनित अंधेरों के ढ़ूह नुमा
दर्दीले पेड़ों की व्यथा कथा बन
किसी कवि -हृद में पग जाओ!!

अभिसार ऋतु में ,उल्लास पर्व पर
चातक- विरह व्याकुल विरहिणी (के) मन में
मिलन -आस-दीप प्रसूत हर्ष-प्रकाश- रश्मि बन
अखिल विश्व आलोड़ित कर जाओ !

या चाहे जो हो जाओ !
किन्तु
छुओ मत मुझे !

स्नेह लो और दो !
किन्तु
मुझमें अपना अस्तित्व न मिलाओ !

अपने आह्लाद की कथाएं कहो !
किन्तु
मेरा संपृक्त मरुस्थल न बिगाड़ो . . . . . .

Thursday, January 1, 2009

फर्जी शुभकामनाएं

(यह विनय भईया के ब्लाग पर टिप्पणी के लिये लिख रहा था , फिर सोचा कि टिप्पणी को थोड़ा और खिला पिला कर अपना भी स्वार्थ साध लूं !)


एक बात है कि नये साल पर या किसी अन्य त्यौहार पर लोग झूठ खूब बोलते हैं !अपने साल भर के झूठ के अकाउन्ट का आधा इन्हीं दिनों मे खर्च कर देते है ! एक से एक फर्जी बधाई सन्देश ! झूठ मूठ की शुभकामनायें !
कैम्पस में घूम रहा था . सड़कों पर सायकिल या मोटर सायकिल से गुजरते लोग एक दूसरे पर वही रटा हुआ जमुला लहरा रहे थे . यूं लग रहा था जैसे बची हुयी रोटियां एक दूसरे पर फेंक रहें हों !
वर्ष चाहे दो हजार आठ हो या नौ या दस , बदलता कहां कुछ है ! जब तक कुछ भीतर न बदले !