Wednesday, December 23, 2009

अभी तो .......


अभी तो व्यथा के श्रृंगों
का आयतन
वर्तनी की आकृतियॊं में नापता हूं ! ! !
भावना के पारावार में
खो जायेगें दुख भी जब
तुम्हारे स्मरण की विस्मृत मधुकरी तब
मन के वातायनॊं पर सजाउंगा !


खो चुके संसार के आर्द्र स्वप्नों को
अभी तो
संतप्त चेतना के ताप से भूंजता हूं ! ! !
उन्माद के संघनन में
झरेंगें जब पीत-पात स्वप्न भी तब
तुम्हारे अविरल नेह की रम्य बांसुरी धुन
हृदय तट के भाव चातकॊं को पिलाउगां ! ! !

Saturday, December 12, 2009

पुरस्कृत



भाव
जो मन में रहे ,
कभी शब्द न बने ,
वृंत पर पुष्प -से खिले ,
साँझ झरे नही,
अपने ही सौरभ में
लीन हो गए.......
उन्हें भी
जान लिया तुमने ,
हतप्रभ , अकिंचन मै
चढ़ा भी न सका उन्हें
ठीक से ,
फिर भी
मंदस्मित स्नेहिल स्वीकारोक्ति से
अर्पित उन्हें
बना लिया तुमने ! ! !



यात्राएं

जिनका साक्षी

समय भी न हुआ ,
जिनकी गति
बहुत देर तक कलपती
अधूरी इच्छाएं
व तड़पते भाव- खग रहे
उन्हें भी
नाप लिया तुमने,
बिना मागें ही
सब दे दिया तुमने!! !
हारा मै , फिर भी
पुरस्कृत किया तुमने !






Friday, November 27, 2009

शब्द यदि झुक गए !


शब्द जब
बध गये
छन्द में तो
“घनत्व” कैसे
करेंगे वहन ?


शब्द जब
ढल गये
छन्द में तो
झेलेगे कैसे
अपने अर्थों की
गुह्य अंतःक्रियायें ?

शब्द जब
झुक गये
छन्द में तो
सहेगें कैसे
वाक्य विन्यास की
कोठर--पैठी
नयी विकसती
अर्थ भंगिमायें ?

तब की बात
कुछ और थी ,
अब मामला
थोड़ा अलग है।
आनाजाना ठीक है
सांसो का, लेकिन
बीच बीच में
हिचकी हिचकियां
कौन कहेगा ?
नयी अराजकताएं
कौन धरेगा ?


शब्द यदि बध गये …..
शब्द यदि ढल गये …….
शब्द यदि झुक गये…….

Tuesday, November 24, 2009

फिर से

तब तक एक पुरानी कविता फिर से पढ़ ले ! क्योकि समय कुछ शब्दों के अर्थ बदल देता है........

कविता की खोज में

Thursday, November 19, 2009

अ अस्वीकार


मैंने जाना
कि
वह करना,
उसमें होना,
गलत है ।

मैंने उसका निषेध किया ।
खुद को उसकी तरफ बहने से रोका ।
उसके प्रति भीतर अपने
वह स्वभाव रचा
जो
अनुभव
अनुभूतियों
व निष्कर्षों पर आधारित था ।
मैंने विजय पायी क्योंकि
अन्ततः
उसके और अपने अंतर्संबंधो का निर्धारक
मैं था !

अब , जब
मेरा उससे कोई लेना देना नहीं है
तो मैं

उसके विरोध में भी नहीं हूं !

Sunday, November 15, 2009

प्रेम गीत


सोचता हूं लिखूं मैं भी कोई प्रेम गीत !

लिखूं सांझ की उतरती उदास धूप में
पीली रोशनी के वलय-सा जगमगाता कनेर !


लिखूं भॊर की पहली किरन को
रंगों के गीत पढ़ाता जवांकुसुम !

लिखूं निशा- वियोग- व्याकुल, वृन्त-प्रछ्न्न
उषा के नासापुटों का गन्धमादक श्वेत नारंगी पारिजात !

लिखूं दूब की पलकों पर रजत स्वप्निल तुहिन कन देख
शिशिरागमन संदेश प्रमुदित आम की चमकीली नयी कोपल !

सोचता हूं लिखूं मैं भी कोई प्रेम गीत !
लिखूं चिड़िया !
लिखूं तितली !
लिखूं हवा !
और
फिर
धूप ! ! !

Thursday, November 12, 2009

मै बस देखूगा !


बस,
हतप्रभ
अकिंचन मैं
देखूंगा ,
चुप ! विस्मित !

तुम हंसो ! ! !
अपनी वो
पूरी खुली
भरी और
गाढ़ी हंसी !

मेघाछ्न्न गदराये आकाश से
और न सम्हल सकी ,
उन्मुक्त,
उत्फुल्ल,
दिनों बाद
यकायक भहरायी
जोरदार
बरसात-सी
हंसी ! ! !

तुम हंसो ! !
मैं बस देखूंगा
वह मोतियों के
खूब बड़े झरने-सी
चमकीली हंसी !

Friday, November 6, 2009

अवसाद के दिनों में सच !


सच इतना अधिक है
चहुं ओर हमारे
खड़ा बैठा चलता दौड़ता
कि हम सह नहीं पाते हैं
फट फट जाते है
माया मिथ्या आभास
कह कह उसे टरकाते हैं !

किनारे बेवकूफॊं जैसा
चुपचाप खड़ा
अपने पातॊं पर
बिलखले आसमान के
घनीभूत दुखॊं को समोता
न हसता न चिचियाता
अनभिप्रेत खड़ा पेड़ ! ! !

टाईट जीन्स ठिक ठाक टी शर्ट पहने
वक्ष उदर को विकर्ण में काटते
टंगने वाला बैग लटकाये
हाथों में मोबाइल और रुमाल लिये
खुद से शुरु और खुद पर खत्म
सड़कों पर बेलौस फड़फड़ाती
अर्थहीन लड़कियां ! ! !

इन्हें सूंघकर
बहुत दिनों से पेचिश के रोगी
भूखे-प्यासे-मुचमुचाये- हड्डियाये
अस्थिशेष-मरणासन्न पिल्ले जैसी
किसी अनादि इच्छा का
धीरे से …….टूं से कूकना…….
और फिर चुप हो जाना ! ! !
दृश्य कला संकाय के
हद तक अव्यवस्थित झालेदार
सीड़ बस्साते स्टोर रुम में
पेप्सी-कोला की मुड़ी तुड़ी
टिन व प्लास्टिक की खाली बोतलों को
छड़ के ढ़ाचे में
अटका अटका कर बना आदमी !
हाथ-पैर-पेट-पीठ चिपकी हुयी खाली बोतलें
जोड़,,घुटने गरदन और कोहनी के कसे हुये छड़
एकदम श्‍लथ ,
न आक्रोश , न दीनता !

सच है !
सब स़च है !

(जन. 2008)

Monday, November 2, 2009

तुम्हें देखें !


हे प्रभु !
मुझे तो नहीं पता
लेकिन लोग कहते हैं कि
अब मैं कवि हो गया हूं !

मैं तो बिलकुल भी
ठीक से नहीं जानता कि
ये कविता क्या होती है
लिखी कैसे जाती है
लेकिन लोग कहते हैं कि
अच्छा लिखते हो तुम !

तो जो कुछ भी हो
असली मामला , वह छोड़ो !
बस, तुम
किसी दिन आराम से
आऒ
और थोड़ी मेहनत से
मुझे यह आदत सिखा दो कि
जब भी लिखूं
कोई भी वाद , विचार लिखूं
भाव लिखूं , अर्थ लिखूं
तो तुम्हारी तरफ ही मुंह रहे
और लोगों की तरफ पीठ !
लिखकर जब भी आंखें उठे
तुम्हें देखें !

Saturday, October 31, 2009

सपने


टूटते हैं सपने
बिखरते हैं सपने
प्रतिकूलताओं के प्रस्तर खण्डों में दब
कलपते हैं सपने
तड़पते हैं सपने

मरकर भी कहां मर पाते हैं सपने
कभी भूत तो कभी जिन बन जाते हैं सपने
तब अक्सर ही सच्चाई की लाशों
डराते हैं ये भूत सपने

धधक चुकी आग में
अन्तिम चिनगारी- से टिमकते हैं सपने
कभी बादल से पानी
तो कभी महुआ बन पेड़ों से गिरते हैं सपने
हर चोट पर
जख्म का बहाना बना
बिना कुछ कहे
चुपके से उग आते हैं सपने


(यह कविता 17 दिस. 2007 को अमर उजाला समाचार पत्र में प्रकाशित है । )

Thursday, October 29, 2009

प्रभाव

तत्क्षण ही
खूब प्रभावित हो जाना
कोई बड़ी अच्छी बात नहीं है ।


तुम अत्यन्त प्रतिभाशाली
महान व विचारवान हो !
तो इससे मुझे
कॊई फर्क नहीं पड़ जाता !
तुम्हारा यश एक दिन
फैलेगा दुनिया के कोने कोने में
और लाघं कर काल की सीमा
सदैव जिन्दा रहोगे तुम
अपने विचारों में ,
तो इससे मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ जाता ।

मैं तुम्हें
देखता हूं
सुनता हूं
गुनता हूं
और मानता भी हूं
लेकिन तुम्हारा सच
मेरा सच नहीं हो सकता ।

फुटकर प्रेरणायें
मन को कमजोर करती हैं ।
मुझे अपनी क्षुद्रता
स्वीकार है ।

Monday, October 26, 2009

दोस्ती


आज मैंने
अपने भगवान जी पर
एक एहसान किया

मन में फुदक आयी
एक अनरगल इच्छा को
भगवान जी से बिना कहे
मन ही में खुरच खुरच कर ,
खिरच खिरच कर
खत्म कर दिया !

शाम को रोज की बात चीत में
यह सब उनसे कह खुश हुआ ।
रोज की तरह
वे भी कुछ बोले नहीं
बस थोड़ा सा मुस्कुराये ।

Friday, October 23, 2009

क्यों धूप क्यों !


धूप !
आजकल हर सांझ
जाने से पहले तुम ,
इतनी गहरी पीली
जर्द
क्यों हो उठती हो ?

क्यॊं
पेड़ों के मटमैले हरे झुरमुट से रिसकर
पीछे दीवार के पर्दे पर पड़ते
तुम्हारे
निर्वाक व निमीलित बिम्ब
इतने घने, प्रगल्भ
व प्रगाढ़ पीत हो जाते हैं
कि
अनिमेष उन्हें देखते देखते
तन्मय मैं महसूस करने लगता हूं
सृष्टि के उन बिल्कुल आदिम शुरुआती दिनों के
उस प्रथम पुरुष की आहट
अपने भीतर !

धूप !
तुम्हारे इस अद्भुत शान्तिमय
निःशब्द पीलेपन पर
मैं अचानक
बहुत कुछ ---कुछ बहुत ज्यादा ---विशाल व सुन्दर ---
कह देना चाहता हूं !
शब्दों में भर देना चाहता हूं !
लेकिन
क्यों ?......... धूप !!! ?
बहुत छटपटा कर भी
बहुत खॊजबीन कर भी
अन्ततः
मैं कुछ कह नहीं पाता !
तुम्हारी उस
भव्य पीत निस्तब्धता की
मधुरिम लय को
जो बांध सके
ऎसे शब्दों की श्रृंखला
सिरज नहीं पाता !!!

क्यों धूप क्यॊं ?

Tuesday, October 20, 2009

बच्चे .....


बच्चे !
असंख्य
जटिल
कठिन
प्रक्रियाऒं के
कितने
अच्छे
सहज
सरल
परिणाम !

वाह ! ! ! !

Wednesday, October 14, 2009

प्रतिदान


यदि कभी

कुछ दूँ


मैं तुम्हें


तो तपाक से


थैंक्यू न बोलना !!!





(अच्छा नही लगता

बिलकुल भी ! )



लेना .......


चुप रहना .........


फिर हल्का सा .......


बहुत धीरे से.....


मुझे देखते हुए


मुस्कराना ......



बस




Monday, October 12, 2009

10 अप्रैल 2009 (डायरी से .......)


सब खाली खाली है.......... । परीक्षाएं खत्म हो गयी हैं ....। दस दिन हो गए .........। लगभग सब अच्छा ही गया है । कम्प्यूटेशनल लिग्विंस्टिक्स व लेक्सिकोग्राफी के पेपर में कुछ कठिनाईयों के अलावा । पिछले चार पांच दिनों में कुछ खास नहीं किया है । नींद ……….और खूब नींद……..। नींद भी कितनी गज़ब की चीज़ है । कुछ पलों के लिये जिन्दगी से मोहलत ।खुद से मोहलत ।हर उस चीज से मोहलत जिनसे हम बनते हैं। तो अभी कुछ आगे की प्रवेश परीक्षाऒं की तैयारी का प्रपंच कर रहा हूं ।
बिलकुल ठण्डा पड़ा हुआ हूं....... । बेहद..... साधारण सी जिन्दगी जीता हुआ........... । भटकनें तो हैं---भटकनें , मतलब वो चीज़ें जिन्हें मैं खुद से जुड़ा नहीं देखना चाहता या वे चीज़ें जिन्हें मैं खुद को करता हुआ नहीं देखना चाहता !!!........... वे हैं तो………. लेकिन वे भी मरियल सी पड़ी हुयी हैं किसी किनारे क्यॊकिं मैं उनका कोई मजबूत विरोध ,जैसा करता रहा हूं अब तक , नहीं कर रहा हूं । वे भटकाती हैं । मैं भटक जाता हूं । वे बुलाती हैं । मैं उनके साथ उठकर चल देता हूं ।अन्ततः वे फिर मुझे वापस छोड़ जाती हैं ।मेरे पास । अकेले । वे बस थोड़ा सा थका देती हैं । मैं सो लेता हूं । सांझ को उठता हूं । चिप्स खाकर चाय पीता हूं । सोये सोये उपन्यास पढता हूं ।

जिन्दगी शायद बिना किसी कारण के भी जीयी ही जा सकती है । बस ऐसे ही जीना……….. । कुछ आभास , जो परिस्थितियों द्वारा निचोड़े जाने पर हममें सिलवटॊं की तरह बच गये हैं और जो हमें सदा अनिश्चित ढ़ंग से किसी निश्चित दिशा , किसी तरफ ढकेले जा रहे हैं ……………वे किसी “कारण” के रूप में नहीं देखे जा सकते । वे हैं और वे चीज़ों को पैदा भी कर रहे हैं लेकिन वे कारण नहीं हैं । वे इतने नीचे हैं कि इतने उपर घट रहे किसी कार्य से कारण के रूप में उनका कोई सम्बन्ध नहीं जुड़ सकता ।

Tuesday, October 6, 2009

कृत्रिम.....नहीं ...सृजित !!!!


तुम्हारी अन्धेरी सुबकनों को अपने स्नेह की लय में डाल जिसने उन्हें धीमी मुस्कराहटों के संगीत में बदल दिया .... अपने इस क्षणिक उत्कर्ष में उसे यूं विस्मृत न करो ! यथार्थ की क्रूर वीथिकाओं में गतिशील, निर्मम कालगति से अनुबन्धित जीवन के गहन वात्याचक्रॊं से लय न मिला सकी तुम्हारी डगमगाती लड़खड़ाती हॄदय की थापों को अपने तरल प्रांजल उर्जस्वल शीतल अंकों में निःशेष सोख अपने अन्तस की उष्मा के निःस्वार्थ दान से जिसने उन्हें चुप नहीं होने दिया ……..उसे इस विश्व--मरूस्थल में उत्थान व श्रेष्ठता की मरीचिकाओं के पीछे इस तरह न बिसारो ……….कृतज्ञता यदि अन्तस से हुलस कर छलक न सकी है और आह्लाद में उमगकर यदि अस्तित्व नतप्रणत नहीं हो सका है ....तो......सप्रयास कर भावों का सृजन व संकलन खुद में विकसने दो एक घनी कृतज्ञता.....कृत्रिम नहीं....सृजित..!!!!!....अहर्निश...अक्षुण्ण…..संलग्न...!

Saturday, October 3, 2009

गोल्डिग ! वे बच्चे नहीं थे ! *

विलियम गोल्डिंग अंग्रेजी के एक महान उपन्यासकार हैं । अपने प्रसिद्ध नोबल पुरस्कृत उपन्यास “लार्ड आफ़ द फ़्लाइज़” में इन्होंने दिखाया है कि बच्चे भी निर्दोष (Innocent) नहीं होते ।उपन्यास में एक स्कूल के बारह वर्ष तक की उम्र के बच्चों का एक दल छोटे से सुनसान द्वीप पर बिना किसी वयस्क के पहुच जाता है । जीवन के लिये उपयुक्त सभी परिस्थितियों के होते हुये भी ये बच्चे अन्ततः हिंसक हो उठते हैं एवं एक दूसरे की हत्या करने लगते हैं ।


वे बच्चे नहीं थे ,
गोल्डिंग ! ! !
मैं कहना चाहूंगा तुमसे
कि जिन्हें
छोड़ा था तुमने
उस निर्जन सुनसान
प्रौढ़ रहित द्वीप पर
वे बच्चे नहीं थे !

वे मात्र
परावर्तन थे
“विकसित” “आधुनिक” व “सभ्य”
मानव की उत्क्षिप्त ,
विकराल व भ्रष्ट अवधारणाऒं के ।

जिन्होंने
अपने बालपन के
सहज सारल्य व
नैसर्गिक सौन्दर्य की अनुपम सुषमा
को बिसारकर कलुषित करते हुये
तुम्हारे रचे उस स्वप्न द्वीप में
मानवीय अन्तःस्थल स्थित
सहजात पाशविक विषण्णता का
पुनरारम्भ किया ,
वे बच्चे नहीं थे ,,,,
वे बस
उन स्मृतियों के विकास मात्र थे
जिसमें मां ने पहली बार
अस्वीकार की थी उनकी कोई मनुहार
और प्राप्त हुआ था उन्हें
बर्बर झिड़कियों से युक्त
एक हिंसक प्रत्युत्‍तर ! !

पारस्परिक विद्वेषों व
आन्तरिक स्वार्थों के वशीभूत हो
जो अन्ततः करने लगे थे
एक दूसरे की नृशंस हत्यायें ,
वे बच्चे नहीं थे !
वे बस
उन प्रकियाऒं के विश्लेषण मात्र थे
जिसमें
एक छोटी सी गलती पर,
कक्षा में उनकी द्वितीयता पर
पिता ने तोड़ दी थी
क्रूरता की सारी हदें
और दिया था उन्हें
हिंसा एक नवीन संस्कार !!!!

वे बच्चे नहीं
मात्र
परावर्तन थे ।


*यह कविता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “सम्भावना” ,मार्च २००७ में छप चुकी है । यहां थोड़े से सुधार के साथ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं।

Thursday, October 1, 2009

सत्य के साथ प्रयोग अभी जारी है !!!



लकड़ी के डण्डों पर टिकी
मुरचहे टीन की छत , पोलीथीन की दिवारें !
जुलाई महीने की सड़ी उमस भरी रातों में
आसपास की बजबजाती नालियों में जवान हुये
मोटॆ मटमैले मच्छर
चीथड़ों से बार-बार उघर आती
उसकी टांगॊ को
बड़ी आसानी से सूंघ लेते है ।
सामने टाट पर
बगल के भव्य मकान की
यहां तक पहुच रही मध्दम पॊर्च लाइट में
रिक्शा चालक
उसका दारूबाज निकम्मा
सूखे सैजन जैसा बाप
पसरा रहता है और
उसकी पतली टागों पर
लिपटी चिचुकी चमड़ियों से
थोड़ा और खून चूस लिया जाता है ।
वह छटपटाता है ।
दर्द से बिना आवाज चिल्लाता है ।
…….लेकिन जोर से रोता नहीं ।


जोर-से रोता नहीं
इसलिये नहीं कि रोकर वह
बल्ब के आसपास फडफडाते
बरसाती कीड़ों जैसी मां से
बेवजह दो चार झापड़ खाना नहीं चाहता ।
इसलिये नहीं कि
बार बार रोने के लिये भी
दम चाहिये ,
छाती में अन्न का जोर चाहिये !
इसलिये नहीं ………
वह जोर से रोता नहीं क्योंकि
वह प्रयोग कर रहा है ।

बधायी हो गांधी जी ! ! !
सत्य के साथ प्रयोग अभी जारी है ।

घाटी की सफेद सुर्ख बर्फ को
डर है कि कहीं वह
“लाल ” सोखते सोखते
अपनी सफेदी न खॊ दे !

रंगीन खुशमिजाज पक्षी सब सोच में हैं
कि बच्चे उनके
सुमधुर नैसर्गिक कलरव के बजाय
कहीं बन्दूकॊं व बमों की तड़तड़ाहट सा
बोलना न सीख जांय !

मुम्बई में ताज के बाद अब
दूसरे बड़े होटल
अपनी बारी के इन्तजार में हैं क्योंकि
हमले का मास्टर माइण्ड अभी वहां
कुछ राजनैतिक शिरकतों में व्यस्त है !!

इन सब के बावजूद
बातचीत जारी है ,
माननीय जन लगे हुये हैं
ब्याह में बचे खुचे पत्‍तल चाटते कुत्तों--सी वार्ताऎ
निरन्तर है !!

बधायी हो गांधी जी !
सत्य के साथ प्रयोग अभी भी जारी है ।

Friday, September 25, 2009

जरूरी नहीं की.....



जरूरी नहीं कि
हर बार
कुछ अच्छा ही लिखा जाय ।


जरूरी नहीं कि
हर बार
कुछ पूरा ही लिखा जाय ।
जरूरी नहीं कि
हर बार
कुछ प्रशसंसनीय ही लिखा जाय ।


जरूरी नहीं कि
जो लिखा जाय
हर बार लोगों को दिखाया ही जाय ।


और फिर ……..
यह भी तो जरूरी नहीं कि हर बार
लिखा ही जाय ……….! ! !

Monday, September 21, 2009

क्योंकि तुमसे मैं प्रेम नही करता


यह समय
तुम्हारे आने का था !
और तुम
नहीं आये !!!

वैसे तो व्यस्त था मैं
अपने कामों में
जैसे रोज रहा करता हूं
लेकिन फिर भी
मेरे अन्दर से कहीं
कोई भीतरी अदृश्य देह
बार बार
मेरी इस देह से निकल
बाहर उस सीढी़ की तरफ़
ढ़ुलक ढ़ुलक जा रही है !


हर बार खुद को बांधता हूं कसकस कर
खेत में पानी बराते नाना
कहीं और हुलसते पानी पर
तावन बांधा करते थे जैसे

जरा भी नहीं चाहता मैं
कि तुम्हारे इन्तजार जैसा
कुछ भी करूं,
तुम्हारी किसी भी आहट को
अपने भीतर सुनुं,
और तुम्हारी आज की इस
आकस्मिक अनुपस्थिति से निर्मित
इस फैलते शून्य को
अपने भीतर
और वृहद होने दूं ,
जरा भी नहीं चाहता मैं

क्योंकि
तुमसे
मैं प्रेम
नहीं करता
थोड़ा सा भी नहीं , बिलकुल भी नहीं

क्योंकि कुछ भी नहीं होता इससे
कि हम रोज मिलते हैं,
बतियाते हैं हसते हैं ठिठियाते हैं ,
एक दूसरे की जिन्दगी को
मूंगफली के खाली ठोंगों की तरह
इधर उधर फेंकते हैं

मार्च महीने की
कुनकुनी ताजी ,
शिवमूरत हलवाई की
एक घुच्चड़ मस्त चाय जैसी सुबह में
सड़क के किनारे घास चरते
तन्मय , निर्लिप्त
दो बकरी के चमकीले मेमनों जैसे
या फिर
पूरा जीवन साथ बिताये
परस्पर किसी भी आकर्षण से रिक्त
दो थके बूढ़े बुढ़ियों की
किसी छोटी सी बात पर
प्रसन्न,
हल्की-सी मुस्कुराती
एक दूसरे से मिली आखों जैसे
हम
कभी कभी एक दूसरे के होने में
थोड़ा बहुत शामिल भी हो जाते हैं

(लेकिन)
सच कहता हूं
कुछ भी नहीं होता इससे !

मेरी नसों में रेगती रहती है एक टीस
जैसे गंजी के नीचे घुसी हो कोई चीटीं
की रिश्ते
सुखाये और पीटॆ जा चुके धानों के
बचे पुआलों के
हुमच हुमच कर कसे गये
बोझ होते है
घुरहू काका जिसे
ठेघुनियां ठेघुनियां कर बांधते हैं
और भूसे वाले घर में पटक आते हैं

इसलिये
प्यार व्यार कुछ नहीं करता मैं तुम्हें
और अपने भीतर दाद की तरह फैलते
इस खाली शून्य को
और फैलने से रोकना चाहता हूं

तुम नहीं आये तो क्या !! !
अभी और बहुत काम है मुझे

(दिस.२००८

Friday, September 18, 2009

पहचान


कितना जरूरी है
जीने के लिए
किसी का यह कहना
कि
सचमुच
बड़े अच्छे हो
तुम !

Friday, September 4, 2009

अन्यथा ..........


सब कुछ तुम्हारा ही है !


मेरी जीत , मेरी हार
मेरी वासनाएं ,आकांक्षाए
मेरे पाप ...........

सब कुछ तुम्हारा ही है !

मेरे मद , मेरे मोह
मेरी उद्विग्नताये , व्यग्रताएं
मेरा अस्तित्व ..........

सब तुम्हारा ही है !

मेरा क्रोध , मेरा प्रेम
मेरी उदघोशनाए , गर्जनाये
मेरे अपराध.....

सब तुम्हारा ही है !

तुमसे विलग है
मेरा
बस एक निर्णय --
सही अथवा ग़लत का !
पाप अथवा पुन्य का !
तुम्हारे इन भव्य उपहारों के प्रति .......
जिससे
मै मै हूँ
और
तुम तुम हो
एकदम प्रछन्न .......दूर दूर

अन्यथा....... ..............!!!!!!!!!!!!!!

Monday, June 15, 2009

किसने किसको


अस्तित्व हमारा
उधार की एक रकम है ।

किसी ने दिया है
किसी को एक दिन
पाई- पाई वापस
ले लेने के लिये ।

लेकिन समस्या
हमारी यह है कि
हम यानी रकम
बड़ी आप-धापी में हैं
भागा-दौड़ी,उठा-पटक में है ।
कारण के तौर पर साफ है कि
हम ये समझ नहीं पा रहे हैं
(या समझना नहीं चाह रहे हैं )
कि हमें
किसने
किसको
दिया है ।
हमारा मालिक असली कौन है ,
कौन विश्वसनीय है पूजार्ह कौन है ,
जिसे हम दिये गये हैं वह ,
या जिसने हमें दिया है वह ।

Tuesday, June 2, 2009

भागो !



(मन ने मन से कहा --)

मत लड़ो ।
हार जाओगे ।


दुख से लड़ा जा सकता है ।
अहंकार , ईर्ष्या ,द्वेष व क्रोध
सभी से लड़ा जा सकता है ।

लेकिन…..
मत लड़ो ,
हारोगे ।
वह रूप बदल कर आया हुआ
विशुद्ध आनन्द है ।

लड़ा नहीं जा सकता उससे ।
अपराजेय है वह ।


भागो !

Thursday, May 28, 2009

मिलन


प्रणय का उत्कर्ष जो है
स्वप्न का उल्लास जो है ,
सोचता हूं कैसा होगा वह मिलन !!!


आशाओं का आलम्ब जो है
प्रेरणाओं का उद्‍गार जो है
सत्य का सन्धान जो है
असत्य का स्वीकार जो है ,
सोचता हूं कैसा होगा वह मिलन !!!


प्रछन्न दो अस्तित्व जो है
विलग चेतना के व्यापार जो हैं
मध्य के अवकाश जो है
प्रत्येक का जब होगा उन्न्यन ,
सोचता हूं कैसा होगा वह मिलन !!!


प्रत्येक क्षण एक प्रयास जो है
स्पर्श की अभिलाष जो है
उत्क्षिप्त मन के भटकाव जो है
सभी का जब होगा उन्मीलन
सोचता हूं कैसा होगा वह मिलन !!!

Sunday, May 10, 2009

हम टूट गए........

हम टूट गये ।
टूट जाती है बीच से जैसे
सूखी लकड़ी ।

झिप गयी चमक
उल्लसित स्वप्नों की आभा से दीप्त
हमारे नयनों की ।

झर गये आह्लाद- सौरभ ,
विह्वल मन की मधु-तृषा प्रतानें
क्लांत हुयी ।

इसलिये
कि
कुछ तुममें था
जो मुझे तुम्हारे पास ले गया था ।
और
कुछ मुझमें था
जो तुम्हें मेरे पास लाया था ।

शायद इसलिये ही हम टूट गये…………..! ! !

काश !
मैं मुझमें ही कुछ खोज पाता
जो मुझे तुमसे संलग्न करता ।
काश !
तुम खुद में ही कुछ देख पाते
जो तुम्हें मेरा पता देता ।


हो सकता है ,
तब……….न टूटते हम……….!!!

Thursday, May 7, 2009

Sunday, May 3, 2009

जीत

जो जीत मिली है तुम्हें
और जिस पर तुम इतने प्रफुल्लित हो
उसे बस लोगों को दिखाने के लिये
अपने घर के दरवाजे पर
बांस लगाकर टांग मत देना !
या खो देने के डर से उसे छुपाकर
पुराने लकड़ीवाले घुने लगे संदूक में न रख देना ।

उसे निकालना
और बिलकुल अपने पास ,हाथ में ले
इधर उधर पलट कर देखना , निरखना !
पूर्वाग्रहों और लिप्साओं को कुछ क्षण के लिये स्थगित कर
उसे फिर से दो चार बार और देखना ।

यदि यह देखना सच्चा हुआ
तो
तुम्हारी इस जीत में , जिस पर तुम इतने प्रफुल्‍लित हो,
कई ऎसे छेद आयेगें
जहां से जीत का वह लोंदा बिलकुल हार जैसा दिखेगा ।
उपलब्धियों का वह टीला
जिस पर तुम्हारे अभिमान की नींव है , रेत के ढ़ूह सा बिखर जायेगा !
आस पास के लोगों से मिलती
प्रशंसाएं प्रेरणाएं व सम्मान सब
चिम्पैजियों की बकवास चिचियाहटों से लगेंगे !


जरा देखना ध्यान से ,
एक बार और ।

Monday, April 27, 2009

आदतन

मन भी कितनी अद्भुत चीज है ! इसकी तो माया ही निराली है ! बिलकुल एक छोटे चंचल बच्चे सा हठी , उद्धत, व मूलतः निश्छ्ल ! किसी भी ऐसे मामले में जहां थोड़ा सा भी सुख या आनन्द मिलने की संभावना हो वहां यदि मेरी हां तो इसकी ना ! ! यदि मेरी ना तो इसकी हां ! ! मैं कहूं छोड़ दो तो वह कहे ले लो ! ! मैं चाहूं कि ले लूं तो वह बोले अब छोड़ो भी !!! मतलब बहुत कम ही ऐसे शुभ व मंगलमय अवसर आते हैं जब दोनों की हां एक साथ होती है ।
वैसे मन एक अच्छा लड़का है । वह बुरा नहीं है । किताबों की बहुत सारी बातें पूरी तरह ठीक नहीं है । बहुत बार वह हमें बस “आदतन” परेशान करता है । हमसे विपरीत जाने में, हमें परेशान करने में, व्यवस्थित चीजें बिखेरने में, तोड़—फोड़ करने में, बेमतलब के उपद्रव रचने में, इधर उधर कूदने फांदने में बहुत बार उसे भी वस्तुतः कोई मजा नहीं आता । लेकिन फिर भी वह यह सब करता रहता है बस आदतन । गति तो उसका स्वभाव ही है !किन्तु दौड़ने के लिये पटरी के रूप में वह आदतॊं को उपयोग में लाता है । और निस्संदेह ही आदतों के बननें या बिगड़ने की जिम्मेदारी तो हम पर ही है ।
अनायास एकदा कहीं पर मन को कुछ सुख मिल जाता है । फिर वह उस सुख को सायास दोहरना चाहता है । बार बार उधर ही दौड़ता है ।किन्तु बहुत ही कम बार ……या लगभग नहीं ही.....वह दुबारा उस अप्रत्याशित सुख को पकड़ पाता है………तथापि आदतन दौड़ता ही रहता है……..उस प्रथम सुख की एक मात्र स्मृति को कसकर धरे हुए।

Wednesday, April 22, 2009

गौरैया के बच्चे

दोपहरी सन्नाटे में अकेले अपने रूम मे बैठा कुछ कर ही रहा था की लाइट चली गयी ! एक गहरी सांस ले धीरे से सब काम किनारे रख सम्मुख की खिड़की खोली मैंने । बाहर बेल का पेड़ आज की इस दुपहर में भी वैसे ही बालकनी में आधा झुका हुआ अपनी नयी आयी पत्तियों से बातें कर रहा था । उन्हें बता रहा था कि कैसे कड़ी पीली धूप को मीठे मद्धम-से हरे प्रकाश में बदल खुद से अनवरत बहाना है ।
मन में कुछ यूं ही बेमतलब की करने को सूझी तो बालकनी में किनारे के सब छेद मूंद खूब अच्छे से पानी भर दिया । सोचा धूल भी नहीं आयेगी ठण्ड भी रहेगी ।
लेकिन थोड़ी ही देर में इससे कुछ और भी हुआ । अप्रैल की इस दुपहरी में जब यहां बनारस में पारा ४४ के पार पहुंच रहा है, लू चलने लगी है और तपन शुरू हो गयी है, सामने के बिल्व वृक्ष पर उछलते-फुदकते चिड़ियों के कई झुण्ड जुट आये !
गौरयों के झुण्ड ,जिनमें कई बच्चे थे ! छोटे –छोटे बच्चे !! प्यारे प्यारे बच्चे !! लाल लाल मुंह वाले बच्चे !! अपने चिड़ियापन की समग्र निश्छलता को सहज ही अपनी ट्विक- ट्विक टिमकन-सी बोली में अभिव्यक्त करते भोले भाले बच्चे !! पूरे विश्वास व बड़ी तत्परता से इधर उधर निहारते चंचल बच्चे !! फुदक फुदक कर पानी पीते , प्यास बुझाते टुइंयां से बच्चे !! गौरैया के बच्चे !!!
कभी वे खुले दरवाजे से बिलकुल मेरी मेज के पास आ जाते ! कभी सामने की खिड़की की राड पकड़ तिरछे लटकते ! फिर पानी पीते ! जड़वत बैठा मैं सम्मुख हो रहे इस तृप्ति उत्सव को मग्न देखता रहा ! प्रसाद स्वरूप उतफुल्लता वातावरण में अगरबत्ती के धुयें सी बिखरती रही ! गौरैया के लाल मुंह वाले छोटे बच्चे पानी पीते रहे और मेरी प्यास बुझती रही !

Friday, April 17, 2009

श्श्श्श...चुप !!

1.
. . . .श्श्श्श्श्श्श्श्श . . .चुप ! ! ! !
घात लगाये ,
छत मुड़ेर पर,
अभी
टिकुरी बैठी है बिल्‍ली . . .. . .।


2.
शोर न करो,
धीरे धीरे आओ
छत पर फैला गेहूं
कुचुर कुचुर खा रही है
सजग गिलहरी ।

Monday, April 13, 2009

क्षणिकाए

(1)
मैं बना गर्भ
पालता बीज
तुम्हारे प्रेम का ।

(2)
खूशबू से पूछो
पता
फूल के दर्द का ।


(3)
घोंसले में थकी सोयी है
चिड़िया । सूरज !
रुको अभी थोड़ी देर !

Saturday, April 11, 2009

शब्द

(मेरी) कविता के शब्दों में
तुम
अर्थ न खोजना, उसकी व्याख्यायें न करना ।
केवल उच्‍चरित करना ,
उन्हें धारण करना और चुप हो जाना ।

वे बस शब्द नहीं हैं ।
वे दूत हैं ।
दूत-बहुत सूक्ष्म जीवधारी , तरंगायित आवृत्ति निर्मित देह वाले ।
आवृत्ति-चेतना के होने का एक ढ़ंग , गतिशील इसलिये अशंतः अभिव्यक्त ।
खैर,
तुम
उन्हें उच्‍चरित करना और चुप हो जाना ।
तुममें प्रवेश कर
वे तुम्हें अपने साथ कहीं ले जायेंगें ।
कहीं-किसी दूसरी जगह पर, अन्यत्र ।

हो सकता है
वो जगह उन्हें कहीं तुम्हारे भीतर ही मिल जाय
और वे तुम्हें वहां पहुंचा
(मुझमें) वापस लौट आयें ।

या हो सकता है
कि उस जगह की खोज में
वे कहीं तुम्हें तुमसे बाहर ले जांय ।
कहीं -स्थान व स्थिति के किसी दूसरे कोण व विमा में ,
और वहां घुमा दिखा
तुम्हें तुममें वापस छोंड़ने के
बाद
(मुझमें) वापस आयें ।

हो सकता है ! ,! ,! ,
लेकिन तुम उनमें अर्थ न खोजना, व्याख्या न करना ।
बड़े अच्छे हैं वे दूत ,
अपना काम कर लेंगें ।

Thursday, April 9, 2009

वो लड़की है....

आज सात साल बाद मिला था उनसे । अब वो बड़ी हो गयी हैं । वो लड़की हैं । वो बोलती और हंसती भी हैं । वो लोगों को देखकर मुस्कराती हैं और बातें करती हैं । कुछ दिन शहर में रही हैं । इतना तो आ ही जाता है । अब उनकी शादी होने वाली है । होने वाली से मतलब पक्की हो गयी है ।
पक्की हो गयी है से मतलब कि अब एकदम पक्की हो गयी है । वो क्या है की इसके पहले भी एक बार पक्की हुयी थी । लड़का “जाब” और “पैकेज” वाला था । धनी था । “संस्कारित” था । एक दो बार घर भी आया । बातचीत भी की । इसी दौरान उनकी —जो अब बड़ी हो गयी हैं और लड़की हैं —की एक पुरानी एलबम में दोस्तों के साथ की (एक बहुत ही सहज सी) फोटो देख ली.........!
आज जिस मन्दिर में उनकी सगायी की रस्म होने वाली है वहीं उसने उन्हें अकेले मिलने के लिये बुलाया था । तब तक घर वालों को कुछ भी पता न चला था । सब खुश थे । चाचा जी मन्दिर तक छोड़ने आये थे उनको ।
शुरुआत की एक दो अच्छी बातों के बाद उसके असहज स्पर्शन को स्वप्नों का आलिंगन ही समझा था उन्होंने । बहुत देर तक भी समझ न सकी थीं वो कि उसने सादे कागज पर जबरन इनके हस्ताक्षर क्यों लिये । क्योंकि तभी उसने बताया था की वह उनसे शादी नहीं करेगा । उन्हें बरबाद करके छोंड़ेगा........ ।
बाद में यह दूसरा रिश्ता पक्का हुआ । तैयारियां हो रही थी घर पर । तभी अचानक एक दिन मुहल्ले में हल्ला हुआ कि मनीषा की शादी तो एक बार हो चुकी है......पुराने दुल्हे के पास कागजात हैं..... !
...पापा के सीने में बहुत तेज दर्द हुआ था ....चाचा का सारा गुस्सा मन्नों पर ही उतरा था.....दीवाल से टकराकर सिर फट गया था...!
आज सगायी के दिन भी जख्म पूरा सूखा नहीं है....सब वैसे ही हो रहा है जल्दी जल्दी । सबकुछ जानने के बाद दुगने दहेज पर फिर से तैयार हुये हैं वे ।

Tuesday, April 7, 2009

अक्षर

मैं
अपना जीना
अपना होना
अपनी तृप्त अतृप्त आकाक्षांए
अपने द्वेष अपनी प्रसन्‍नताएं
और इन सब को मिलाकर
जो बिलकुल मैं हूं वह
थोड़ा थोड़ा रोज रोज
शब्दों को देता जाता हूं ।

हांलाकि शब्द फिर से
पूरा पूरा ,दुबारा ,कहीं
किसी से भी ,ठीक वैसा ही
नहीं कह पायेगें मुझे
लेकिन
शायद
अपनी अक्षरता में सतत गतिशील
अपने साथ वे
एक दो कन मुझे भी
अक्षर कर जायेंगे ।

Saturday, April 4, 2009

चाहना और होना

चाहने और होने में बहुत अन्तर है !

बहुत कम ही यह होता है कि
“चाहना” “होने” की तरफ पहला कदम हो!

अक्सर चाहना अपने जनमने के कुछ समय बाद ही
आंसू गैस के एक गोले सा फटता है
और यथार्थ में ही कुछ ऎसा घोल देता है
कि उसकी यथार्थता लगभग समाप्त हो जाती है ।

हम एक आभास को ही सच मान लेते हैं
क्योंकि तब तक यह चाहना
हमें अपने उस अन्तिम होने का
एक सुन्दर व सस्ता विकल्‍प दे चुका होता है !

Sunday, March 8, 2009

उल्लास


हर्ष के रंग
रंग गये सब
मन के गात!

छलका उल्‍लास!
बरसा उल्‍लास !

निश्चल वृक्षों संग
नेह प्‍लावित हृदय भी
हरितिमा की इस
उत्सव-वर्षा में
तर बतर भींग उठा!

Tuesday, March 3, 2009

मृत्यु

देह तो बाद में मरती है ।
अक्सर
मन बहुत पहले ही मर जाता है ।

धीरे धीरे सड़ती लाश
बची रहती है ।
लोग कहते हैं “पहुंचा हुआ” ।


दरसल ,
बहुत सारे विचार, वाद और सोच के ढ़ंग
जगह जगह खुली कब्र की तरह बिछे रहते हैं ।
स्वछंद विचरते अनेक सुन्दर मन
बकरी के मेमनों की तरह उनमें गिरते हैं ।
वापस निकल नहीं पाते हैं ।
दफ्‍न हो जाते हैं ।
मर जाते हैं ।
सड़ जाते हैं ।

दूर दूर तक दुर्गन्ध फैलती है ।
लोग कहते हैं यश है ।

Friday, February 27, 2009

कवि

अभी रुको थोड़ी देर ।
धैर्य धरो ।

आने दो वे मुहूर्त
जिनमें तुम्हारे
अन्तर्जगत
और
वाह्यजगत
के सब भेद
मिट जांय ।


तब तुम
अपने को कवि कहना ।

मैं तुम्हारे चरण धोकर पियूगां
और
सभ्यता समय के पथ पर
अपनी गति के बारे में
तुम्हारे इंगित की बाट जोहेगी ।

Wednesday, February 25, 2009

परावर्तन

आज मुझसे
कहा तुमने
कि
“बहुत अच्छे” ।

तो
जरूरी नहीं
कि कहूं ही मैं तुमसे
“धन्यवाद” ।


क्यॊंकि
कभी अगर फिर
कहोगे तुम
“कमीने”
तो निश्चित ही
तुम्हें पीटकर
अपना वक्त जाया करने के बारे में
मैं नहीं सोचूगां ।


दरसल , कल ही एक जगह सुना है मैंने
कि नौसेना के कुछ परमाणु वाहक पोत
परावर्तित करने के बजाय सोख लेते है
राडार की खॊजी तरंगों को ।

Sunday, February 22, 2009

चौराहे

हार जीत
प्राप्ति अप्राप्ति
अवनति उत्कर्ष
सब बस एक चौराहे हैं ।


कुछ पल रुकना है ।
आगे का पथ निर्देशन लेना है ।
चल देना है ।


कहीं नहीं ....
कहीं भी नहीं .....
है कोई ठहरी हुयी उपलब्धि ....
कोई जीवित अगत्यात्मक स्थिति !
कहीं नहीं ।

एक समय सब कुछ को --श्रेष्ठतम को , निकॄष्ठतम को
बीत जाना है …रीत जाना है ।

पाने वाले और खोने वाले को अन्ततः
बस देखने वाला होकर
चलते चले जाना है !
चलते चले जाना है !
चलते चले जाना है!

Thursday, February 19, 2009

एक आत्मसंवाद .....


चलो छोड़ो!
बढ़ो आगे !
न रुको !

देखो उधर !
कितनों को जरूरत है तुम्हारी !
चाहते हैं वे कि पास रहो तुम उनके
उन्हीं के बन कर , उन्हीं की चाह में बधे हुये !


थोड़ा अपने को किनारे रखो !
भूलो अपने स्वप्न
अपने वे ऊंचे अभीष्ट ।

और .........
अब तो .........
वह भी लौट चुकी है....
नेह के सब उत्स अधूरे छोड़.....
अपनी एक ऎसी दुनियां में
वापस आना जहां से
कभी सम्भव नहीं होता......!!!


तो फिर.....
अब तुममें बचा ही क्या है ! ! ! ! ! !
झूठे स्वप्न ....भुलावे में रखने वाली इच्छाओं के
अलावा !

वसन्त की इस ऋतु में ,
चहुं ओर जब घनी हरियरी छायी है
बीच में सूखे पेड़ की ठूंठ बनकर
इस तरह खड़े रहना
अच्छा नहीं लगता !



अपने को दे दो !
जाओ ! उनके बीच
टूटकर जलो ,
उनकी ऊष्णता के लिये
अपने में बची अन्तिम आग
को भी
सौंपकर
राख होवो !

(फिर ,
पूरे सन्तुष्ट
किसी किनारे जमीन पर बिखरे बिखरे
सब कुछ बस चुपचाप देखते रहना ।
कोई तुमसे कुछ नहीं कहेगा ।)




Monday, February 16, 2009

परस

छुआ तुमने!!!

न जाने क्यों
भर आयी आंखें
और चुपचाप बह चले
एक दो गीले कन . ......

अश्रुपूरित नयन, विगलित मन
मैं बस विलोकता रहा तुम्हें , विनत.......

Sunday, February 15, 2009

किर्र ..किर्र.....किर्र..किर्र


किर्र ..किर्र.....किर्र..किर्र
लकड़ी के दरवाजे में नहीं
देह में
सुनो
कान लगाकर
अपनी सांस . .....
समय का घुन
अनवरत चर रहा है
तुम्हें.......

Friday, February 13, 2009

क्षणिकाएं

(0)
न भीचों कस कर ।
लिटा स्‍नेहिल अंकों में
बस दुलराओ !


(0)
हवा मैं
फूल तुम ,

मैं तुम में , तुम मुझमें !


(0)
सिन्धु से पूछो
दुष्करता ,
एक समर्पित स्वत्व के वहन की!

(0)
हवा चली ।
फूल
डोल उठा ।

(0)
किया नहीं जा सकता समर्पण
बस यह जाना जा सकता है
कि मै समर्पित हूं !

Wednesday, February 11, 2009

कविता की खोज में . ...

जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।


जैसे कल रात जल्दी सोया मैं
और सुबह ही मां ने जगाया ।
पूरे दिन सब कुछ वैसे ही चलता रहा …
कक्षाएं, बेमतलब की पढ़ाई, दोस्त और भटकनें ।

नहीं जन्मी कोई कविता ।

जबकि कल के उस दिन में
जिसमें सब ठीक ठाक गुजर गया !
पूरे दिन जगह जगह , यहां वहां
खोजता रहा मैं कोई कविता ।

हरे सूखे बड़े छोटॆ,हर पेड़ की
डाल डाल देख डाली मैंने
कि शायद बूढ़े -से आम की किसी डण्ठल पर
धीरे धीरे कहीं जाती लाल चूंटों की
एक तल्‍लीन पंक्ति दिख जाय
अथवा
निकम्‍मे-से ऊंचे ताड़ के झुरमुट में बया के घोंसले सी टंगी
कहीं मिल जाय कोई कविता ।

बहुत देर तक टहलता देखता रहा मैं …
दिन ब दिन तेज होते घाम में बड़ी बेरहमी से
खुरदुरी शुष्क निर्विकार रस्सी पर फैला दिये गये
जमकर धुले, चोट से कराहते ,साफ साफ,
कपड़ों को सूखते ।

पहुंचा मैं ऊंचे-से टीले के उस
पीछे वाले पीपर डीह पर भी ,
कि शायद आज भी कोई
अपनी अधूरी चाह की तड़पन का एक धागा
फिर लपेट गया हो वहां!

रास्ते में लौटते वक्त कहीं पर
कुंई कुंई करते , पीछे दौड़ते आ रहे
सफेद प्यारे गन्दे पिल्ले को थोड़ी देर रुककर
सहलाया भी , और चोर है कि साव ,
जांचने के लिये उसके कान भी खीचें ।

छत पर हल्का सा झुक आये आम के पेड़ में
गंदले धूलसने अनुभवी और निरीह-से पल्लव की एक पत्‍ती तोड़
उसकी पतली -सी डण्ठल को ऊंगलियों से पोछ
खूब मन से (मैंने) उसे कुटका भी
और उसके हल्के कसैले स्वाद को
थोड़ी देर तक चुभलाया भी ।

शाम को लंकेटिंग* के दौरान
अमर बुक स्टाल के ठीक सामने
ठेले पर सजने वाली चाय की दुकान पर
पांच रुपये वाली इस्पेसल चाय की छोटी सी गरम डिबिया थामें
पास ही में जमीन पर लगभग ड़ेढ फूट चौड़ी ,
सड़क के पूरे किनारे को अपनी बपौती -सी समझती हुयी
खूब दूर तक बड़े आराम से पसरी
लबालब कीच व तरह तरह के कचरे से अटी पड़ी ,
बस्साती गन्दी नाली में एक ओर
आधे डूबे , फूले , मटमैले पराग दूध के खाली पैकेट और
उस पर सिर टिका कर सोये -से
अण्डे के अभी भी कुछ कुछ सफेद छिलकों को
खड़े खडे़ कुछ समय तक घूरता भी रहा (मै ) ।


लेकिन . . . .. .
अन्ततः नहीं जन्मी कोई कविता
क्योंकि जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।

(इसके अलावा , इस खोज में )


बहुत देर तक नीलू के साथ
घूमता रहा (मैं) आईपी माल में ।
मैक डोनाल्ड में पिज्जा खाते ,
थर्ड फ्‍लोर के हाल टू में गजनी देखते
भीतर के गीले अंधेरों में,
सच में प्रेम करने वालों की तरह ही
हमने एक दूसरे को महसूस भी किया
और इण्टरवल में नेस्कफे के काउण्टर पर
एक दूसरे से सचमुच में यह बतियाते रहे कि
यहां तीस रुपये में कितनी बेकार काफी मिल रही है
जबकि कैम्पस में वीटी पर दस में ही कितनी अच्छी मिल जाती है ।

लेकिन . . .. .
आखिरकार. . .. नहीं जन्मी कोई कविता
क्योंकि जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।



*शाम को लंका (बनारस में एक स्थान) पर घूमने जाना ।

Sunday, February 8, 2009

रिश्ते

समय की नदी में
छोटी -सी नाव- से बहते हैं रिश्ते !

कभी भावनाओं की लहर ,
तो कभी
उलझन के थपेड़ों में
हुटकते हैं रिश्ते !

कभी
वसन्त के स्वागत में मन की बगिया में
नयी कोंपलों -से विंहसते है रिश्ते
तो कभी और खिंचाव न झेल सकी
तनी रस्सी-से छिंटक जाते हैं रिश्ते ।


कभी सब कुछ खत्म हो कर भी
बहुत कुछ बच जाता है!
और
कभी सब कुछ रह कर भी
कुछ नहीं रह पाता है ।


कभी
कोई टूटी दबी आस चींख पड़ती है
मन के अन्धेरों से,
कभी कोई फांस निकल आती है
भीतर की अतल गहराइयों से ।

कभी बहुत चाह कर भी
कोई प्रश्न उत्तर नहीं बन पाता है ।
और कभी हजारों उत्तरों के शोर में
मध्दम सा वो प्रश्न
अनसुना ही रह जाता है !

फिर भी ,
समय की नदी में
छोटी -सी नाव- से बहते रहते हैं रिश्ते !




Friday, February 6, 2009

सुख . . . .

सुख है ।
निश्चित तौर पर है …
सुख ।

लेकिन
वह कोई
पीपल के पेड़ -सा नहीं ,
जुगनू की अकेली टिमकन -सा है ।

वह
कोई बड़ी- सी नदी नहीं ,
बहाव से किनारे छिटकी ,
मन की घास के फुनगे पर अटकी
आधी भाप बन चुकी पानी की एक बूंद है ।

वह
रात के भींगे, घुप्प एकान्त नीरव अंधेरों में
रूई के फाहों -से, सहज निःसृत,
शान्त मध्दम गुनगुन
संगीतमयी, मिश्री जैसे में शब्दों हुयी
पूरी बात भी नहीं है ।
वह
बीच में आया , पहला और अन्तिम
अति लघु
वो क्षण है
जिसमें
अनायास झिप गयी थी पलकें
और जिसके बाद
बहुत देर तक बहुत से शब्द
ध्वनि की रस्सी छोड़कर हवा के फुग्गे में बैठ
चुप
पूरे शान्त
एक के बिलकुल भीतर से निकल दूसरे के सबसे निचले तल में
मौन झील की समर्पित थिर जलराशि में
धीरे धीरे डूबती किसी चीज जैसे
उतरते रहे हैं, प्रवेश करते रहे हैं,
और वातावरण में बिखरी हुयी
बहुत बहुत ही अचानक घनी हो चुकी
खूब खूब गहरी चन्दनगन्धी मिठास
ओस-सी संघनित होकर
बदराये मन के नील श्याम धुंधलाये अकास में
झिमिर झिमिर बरसने लगी है ।

Thursday, February 5, 2009

तरीके

बाहर के सारे लोग
मुझे अच्छा कहें और
मैं अपने को बुरा जानता रहूं ।
एक यह ।

बाहर के सारे लोग
मुझे बुरा कहें और
मैं अपने को अच्छा जानता रहूं ।
एक यह ।


बाहर भी सब अच्छा कहें
और
मैं भी अपने को अच्छा जानूं ।
एक यह ।


बाहर भी सब बुरा कहें ,
मैं भी
खुद को बुरा जानूं ।
एक यह ।

बस
और कुछ नहीं ।

हर कोई
कहीं न कहीं
इन्हीं के बीच है

या गुजर चुका है !


अपनी पहचान के बहुत से तरीके हैं ।
उनमें से एक यह भी ।
बस
और कुछ नहीं ।