Tuesday, December 23, 2008

संपृक्त




मेरी सफलताएं
और असफलताएं ! ! !

बीच इनके
कभी इधर तो कभी उधर
ढुळकता
आधारहीन अनअस्तित्व मैं !

सफलताएं जब
आसपास खड़ीं हो जाती हैं आकर
तब
वे सब
चाहने लगते हैं मुझें !

दुलारते हैं ,
पुचकारे हैं ,
सम्मान देते हैं ,
बताते हैं कि
बडे़ अच्छे हो तुम ,
प्यारे! प्यारे !

और
असफलताओं की शीतलहरी में जब
यकायक बिखर जाते हैं उत्कर्ष के सारे विकल्प
तब उनकी आखों में फफकती घृणाओं का
एकमात्र हेतु व गन्तव्य हो उठता हूं मैं !
मुझे वैसे ही जर्जर व हीन छोड़
तत्क्ष्ण ही मेरे विकल्प की तलाश में जुट जाते हैं सब! ! !

वैसे तो स्वाभाविक ही है
घृणा और प्रेम का यह चक्र
और नियति जान
इसे
अकुण्ठ
स्वीकारता भी हूं मैं ,
किन्तु !
क्षोभ ! ! !
कि उनके प्रेम और घृणाओं के
अन्तःस्थलों में भी
कहीं नहीं होता मैं . . .
होती हैं . . . .बस . ....
मेरी सफलताएं
मेरी असफलताएं ! ! !

1 comment:

  1. गर बाबा को भी शब्द मिल जाते.........

    ReplyDelete